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वैदिक काल में उत्तर प्रदेश ऐसा था?

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एक समय तक भौगोलिक रूप से भारत का सबसे बड़ा राज्य रहे, उत्तरप्रदेश न सिर्फ़ आज बल्कि हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है। इस आकर्षण के पीछे बहुत बड़ा श्रेय राज्य की भौगोलिक स्थिति को जाता है। भारत की दो पवित्र नदियाँ गंगा व यमुना के मैदान, और भारत के मध्य में स्थित होने के कारण, यह राज्य अपेक्षाकृत अन्य राज्यों की तुलना में, पूरे उत्तरी भारत के इतिहास का केंद्र बिंदु रहा है। यही एक महत्वपूर्ण कारण भी है जिसने उत्तरप्रदेश के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वैभव को बढ़ाया है। भारतीय दृष्टिकोण से लिखे गए दो बेहद महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की पृष्ठभूमि भी उत्तरप्रदेश ही रही है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उत्तरप्रदेश का इतिहास कितना पुराना होगा! हालाँकि, राज्य का यह नाम कुछ ही दशक पुराना है। यदि राज्य के इतिहास को सूक्ष्मतम रूप में समझना है तो  इसके लिए कई सौ शताब्दी पूर्व जाना होगा। इतने बड़े इतिहास को समेटने के लिए इतिहास और उससे जुड़ी घटनाओं को पाँच अवधियों में विभाजित करना होगा, जो कि इस प्रकार है:-

(1) प्रागैतिहासिक काल और पौराणिक कथाएँ ( 600 ईसा पूर्व तक)
(2) बौद्ध-हिंदू काल ( 600 ईसा पूर्व से 1200 ई. तक)
(3) मुस्लिम काल ( 1200 ई. से 1775 ई. तक)
(4) ब्रिटिश काल ( 1775 ई. – 1947 ई.) और
(5) स्वतंत्रता के बाद की अवधि (1947 ई. से वर्तमान)

प्रागैतिहासिक काल/ पौराणिक काल/ वैदिक काल -
यदि हम प्रारंभिक वैदिक काल से देखें तो वर्तमान उत्तर प्रदेश के बारे में शायद ही कोई सीधा उल्लेख कहीं मिलेगा! यहाँ तक की गंगा व यमुना जैसी नदियों का भी आर्यों के सन्दर्भ में ही वर्णन है। क्योंकि तब तक जीवन क़बीलों में ही व्यतीत होता था। हाँ, वैदिक काल की शुरुआत के वर्षों बाद सप्त सिन्धु की जगह ब्रह्मर्षि देश या मध्य देश का ज़िक्र ज़रूर दिखाई देता है। यही वह समय है जब से आज का उत्तरप्रदेश, भारत में एक पवित्र स्थान, एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरना शुरू हुआ। मध्य वैदिक काल तक आते-आते निर्मित हुए नये राज्य कुरु-पांचाल में ‘काशी’ और ‘कौसल’ एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुके थे। कुरु-पंचत के लोगों को उस समय वैदिक संस्कृति के मुख्य प्रतिनिधि के रूप में देखा जाने लगा। वे संस्कृत भाषा के महान ज्ञाताओं में गिने जाते थे। यहाँ तक की उपनिषदों में भी पांचाल परिषद का ज़िक्र हुआ है, जिसमें अश्वमेध यज्ञ का भी उल्लेख है। उपनिषदों में जितने भी ऋषियों का वर्णन है उनमें से अधिकतर के आश्रम वर्तमान उत्तर प्रदेश में ही थे जैसे : भरद्वाज, वशिष्ठ, वाल्मीकि, अत्रि, याज्ञवलक्य आदि।

जिस सांस्कृतिक विरासत की नींव मध्य वैदिक काल में स्थापित हुई वह उत्तर वैदिक काल तक भी बनती रही। रामायण की कहानी जहाँ कोसल के इश्वाकू राजवंश के इर्दगिर्द रही, वहीं महाभारत हस्तिनापुर के कुरु राजवंश के। उत्तरप्रदेश के स्थानीय लोग आज भी विश्वास के साथ कहते हैं कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम ब्रम्हवर्त (आज के कानपुर ज़िले के बिठूर) में, नैमिशरन्य ( सीतापुर ज़िले में ) के आसपास था, जहाँ सुता ने महाभारत सुनाई।
हिन्दू धर्म में दो सर्वाधिक पूजे जाने वाले भगवान, श्री राम और श्री कृष्ण की जन्मस्थली भी उत्तरप्रदेश ही रही है। वे क्रमशः अयोध्या और मथुरा में जन्मे जो आज की तारीख़ में बड़े धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुके हैं।

अयोध्या शहर, जिसे औध या अवध भी कहा जाता था, दक्षिण-मध्य उत्तर प्रदेश राज्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है। यह वर्तमान उत्तरप्रदेश के फ़ैजाबाद शहर के पूर्व में घाघरा नदी पर बसा है। हिंदुओं के सात पवित्र शहरों में से एक अयोध्या के धार्मिक जुड़ाव ने ऐसे साक्ष्य दिए हैं कि तत्कालीन शहर बेहद समृद्ध था और एक बड़ी आबादी का भरण-पोषण करता था। इतिहास में, अयोध्या उस समय कोसल राज्य की राजधानी रही थी, जो बाद में बौद्ध काल (6ठी-5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) तक आते-आते श्रावस्ती राज्य का प्रमुख शहर बन गया था।

अयोध्या की ही तरह मथुरा भी भारतीय उपमहाद्वीप में, ख़ासकर हिन्दुओं के लिए हमेशा से ही बहुत ही महत्वपूर्ण शहर रहा है। कृष्ण जन्मस्थली होने के कारण यह शहर भी हिन्दुओं के सात पवित्र शहरों में स्थान रखता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार शहर का उल्लेख सबसे पहले रामायण में हुआ। उसमें बताया है कि इक्ष्वाकु राजकुमार शत्रुघ्न ने लवनासुर नामक एक राक्षस को मार डाला और इस जगह पर दावा किया। बाद में, इस स्थान को मधुवन के नाम से जाना जाने लगा, क्योंकि यह घने जंगलों से घिरा था। वही मधुवन फिर मधुपुरा बना और मधुपुरा, मथुरा।

पुरातात्विक उत्खनन मथुरा का विकास एक गाँव से बताते हैं, जो वैदिक युग के दौरान कभी अस्तित्व में आया होगा। गंगा व यमुना के नज़दीक होने के कारण अपनी प्रारंभिक अवस्था में मथुरा व्यापार का एक बड़ा केंद्र रहा। जहाँ से दक्षिण की ओर मालवा (मध्य भारत) और पश्चिमी तट से जुड़े हिस्सों तक में व्यापार होता था। पुरातत्वविभाग ने राखीगढ़ी से लाल बलुआ पत्थर के टुकड़े की भी खोज की है - जो 3000 हज़ार साल पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता के समय की है – तब उसका उपयोग ग्रिंडस्टोन के रूप में किया जाता था; वह लाल बलुआ पत्थर इसीलिए भी ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि उस काल की मूर्तियों के लिए वह पत्थर एक महत्वपूर्ण सामग्री के रूप में इस्तेमाल होता था।

यह उत्तरप्रदेश के बनने की भ्रूण अवस्था कही जा सकती है। अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ इस जगह को शुरू से ही मिलता रहा। हिमालय कि तलहटी, और दो बेहद महत्वपूर्ण, वर्ष भर बहने वाली नदियों का मैदानी होने से यह जगह किसी भी मानव सभ्यता की शुरुआत के लिए एक उत्तम जगह होती, जो आख़िरकार हुई भी।

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