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ब्रिक वर्क, सुर्खी, चूना, गुड़ का शीरा और अरहर की दाल से बना यूपी का अद्भुत एक्वाडक्ट पुल

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इंजीनियरिंग के मामले में भारत हमेशा से ही भाग्यशाली रहा है। यहां बेजोड़ तकनीक के ऐसे कई नमूने हैं जिसे देखकर इंजीनियर्स के दिमाग भी कई बार चकरा जाते हैं। कानपुर शहर में एक ऐसा पुल स्थित है जहां का आर्किटेक्चर देख पर्यटक ही नहीं बल्कि इंजीनियर भी हैरान रह जाते हैं हालांकि इस पुल को ब्रिटिश काल में यानी करीब 107 साल पहले बनाया गया था और इसके निर्माण में न तो सीमेंट का इस्तेमाल हुआ है न ही सरिया का। अब आप सोच रहें होंगे कि जब सरिया और सीमेंट का इस्तेमाल हुआ ही नहीं तो यह पुल 100 से भी ज्यादा साल बाद अब तक कैसे टिका हुआ है तो आज इस वीडियो में आपको बताते हैं कि आखिर इस पुल का निर्माण कब, क्यों और कैसे किया गया। वर्ष 1837-38 में जब यहां भीषण आकाल पड़ा तब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने करीब 1 लाख रूपए खर्च कर इसकी भरपाई की। इसके बाद सुचारू सिचाई प्रणाली की ज़रूरत महसूस हुई तो गंग नहर को अस्तित्व में लाया गया। इसका पूरा क्रेडिट उस वक्त ब्रिटिश शासनकाल के कर्नल प्रोबी कॉटली को जाता है। उन्होंने 500 किलोमीटर लंबी एक ऐसी नहर का निर्माण कराया जो अलग-अलग शाखाओं में बंटते हुए कानपुर तक पहुंचती थी और इसे निचली गंग नहर के नाम से जाना जाता था।

ब्रिक वर्क से हुआ पुल का निर्माण 
जानकार बताते हैं कि पुल का  निर्माण ब्रिक वर्क से हुआ है। इसके अलावा सुर्खी और चूने के साथ गुड़ का शीरा और अरहर की दाल से अन्य मटेरियल तैयार किया गया था जो इसे बेहद मजबूत बनाता है। इसके पिलर का निर्माण इतनी मजबूती से किया गया है कि यह 50 सालों तक ऐसे ही खड़ा रहेगा। जानकारी के लिए बता दें कि ऐसे पुलों को इंजीनियर्स की भाषा में एक्वाडक्ट (Aqueduct) पुल कहा जाता है। एक्वाडक्ट जल निकासी का एक ऐसा रास्ता है जो किसी शहर या कृषि क्षेत्र में पानी की आपूर्ति करता है।

ऐसा है पुल का आर्किटेक्चर 
कानपुर के मेहरबान सिंह पुरवा गांव के पास बने इस पुल की एक ख़ास बात यह भी है कि पुल के नीचे से पांडू नदी बहती है तो ऊपर से गंग नहर का पानी गुजरता है। पुल को सहारा देने के लिए चौड़ी दीवार और नदी में 25 फिट की गहराई से ईंट के छह पिलर बनाए गए हैं। नदी के नीचे पहले ईंटों के पिलर बनाए गए फिर इस पुल को गोलाकार रूप में छह भागों में बांटा गया। वर्तमान समय में जो पुल बनाए जाते हैं उन्हें रेनफोर्स्ड सीमेंट कंक्रीट यानी आरसीसी से बनाया जाता है। इन पुलों में सरिया या फिर गार्डर का इस्तेमाल किया जाता है। पर्यटन की दृष्टि से यह पुल इतना खास है कि अगर इसका संरक्षण किया जाए तो यह स्थान पर्यटन के केंद्र में विकसित किया जा सकता है।

पुल से गुजरते हैं चार पहिया वाहन 
पुल की देखभाल और पैदल जाने वाले लोगों के लिए एक सुरंगनुमा रास्ता नदी के ऊपर बनाया गया है। इसमें 22 दरवाजे हैं, जिन तक पहुंचने और व इनसे निकलकर पैदल जाने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां भी बनी हुई हैं। पुल के ऊपर नदी की ओर रेलिंग लगाई गई है जबकि नहर की तरफ पक्की दीवार है। इन दीवारों की चौड़ाई 3 से 4 फीट है। पुल को इतनी मजबूती से बनाया गया है कि यहां बेहद आराम से दो और चार पहिया वाहन गुजरते हैं। यहां पहली बार गुजरने वाले लोग पुल की बनावट देखकर हैरान रह जाते हैं और खुद को इसकी प्रशंसा करने से रोक नहीं पाते। पांडू नदी और नहर के दोनों तरफ जलस्तर को नापने के लिए ईटों के बीच एक बोर्ड भी लगाया गया है। इसे ब्रिटिश काल में पानी की स्थिति मापी जाती होगी। हालांकि मौजूदा समय में इसका कुछ हिस्सा टूट चुका है लेकिन नंबर अभी भी पड़े हुए हैं।

अब कानपुर की बात हो ही रही है तो इस शहर के इतिहास और उससे जुड़ी कुछ अहम बाते भी जान लेते हैं
इस शहर के इतिहास में 24 मार्च का भी एक ख़ास महत्त्व है। दरअसल वर्ष 1803 में इसी दिन शहर को स्थापित किया गया था। कानपुर में कपड़ा उद्योग ने जब तरक्की की उस वक्त इसे भारत का मैनचेस्टर के रूप में जाना जाने लगा लेकिन अब इसे कमर्शियल कैपिटल के रूप में भी जाना जाता है। दरअसल औद्योगिक नगरी के रूप में विकसित इस शहर में कई मिलें खुली जिसमें लाल इमली, म्योर मिल, एल्गिन मिल, कानपुर कॉटन मिल और अथर्टन मिल यहां काफी प्रसिद्ध हुई। कानपुर यहां बेस्ट क्वालिटी के लेदर प्रोडक्ट्स के लिए भी जाना जाता है। यह शहर अब ऊन, चीनी रिफाइनरियों, वेजिटेबल ऑयल का उत्पादक भी माना जाता है। आज भी इतिहास इस बात का गवाह है कि शहर आए अनेक राजाओं और शासकों ने शहर पर अपने हिसाब से राज किया। यही नहीं शहर का नाम भी अपने विचार और मानकों के अनुसार बदले। बताया जाता है कि 1700 के अंत से लेकर अब तक इस शहर के नाम में करीब 21 बार परिवर्तन किए जा चुके हैं।

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