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जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है, वहीं हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।
…यकीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, हम अपना घर-गली अपना मुहल्ला छोड़ आए हैं।।
मुनव्वर राना की ये पंक्तियाँ सिर्फ़ एक रास्ते का ज़िक्र नहीं, बल्कि उस सोच का मर्सिया हैं, जिसने आज़ादी की नींव में अपने ख़्वाब गाड़ दिए। ये कहानी है एक ऐसे शायर की, जिसकी जुबां से निकले लफ्ज़ सिर्फ़ शेर-ओ-शायरी नहीं थे, बल्कि एक मुकम्मल बगावत थे।
एक ऐसा शख्स, जिसने अपनी शायरी में मोहब्बत के नग़मे भी लिखे और इंक़लाब की सदाएं भी बुलंद कीं। जिसने सूफियाना तबीयत के साथ क्रांतिकारी सोच को पाला। जिसने जेल की अंधेरी कोठरी में बैठकर इश्क़ की सबसे हसीन ग़ज़ल लिखी, और उसी कैदखाने में बैठकर आज़ादी का सबसे पुरजोर नारा गढ़ा—"इंक़लाब ज़िंदाबाद!"
जरा आप सोचिए कि, कोई आदमी इतना आगे की कैसे सोच सकता है कि 1921 में ही, जब बाकी नेता डोमिनियन स्टेटस की बातें कर रहे थे, वो खड़ा होकर "मुकम्मल आज़ादी" की मांग कर रहा था?
उन्नाव जिले के मोहान कस्बे में 1 जनवरी 1875 को जन्में सैयद फ़ज़ल-उल-हसन जिन्हें दुनिया हसरत मोहानी के नाम से जानती है। उन्होने उस समय वो कहा, जो तब किसी के ज़ेहन में भी नहीं था। कांग्रेस ने उनकी बात नहीं मानी, गांधीजी ने इसे "ग़ैरज़िम्मेदाराना" बता दिया। मगर फिर क्या हुआ? 1930 में कांग्रेस ने वही प्रस्ताव पास किया—पूर्ण स्वराज!
अब आदमी हिम्मतवाला हो, तो उसके साथ मुश्किलें तो चलती ही हैं। अंग्रेज़ों को उनकी बातें पसंद नहीं आईं। उन्हें जेल में डाल दिया गया। वहाँ रोज़ एक मन गेहूं पिसवाया जाता था। सोचिए, एक शायर हाथों में कागज़-कलम नहीं, पत्थर की चक्की पकड़कर बैठा है। मगर इस सबके बावजूद उनकी शायरी जारी थी।
"है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक्क़त भी,
इक तुर्फ़ा तमाशा है, ‘हसरत’ की तबीयत भी।"
हसरत मोहानी को सिर्फ़ इंकलाब से नहीं, इश्क़ से भी गहरी मुहब्बत थी। वो सूफ़ी थे, मगर उनकी सूफ़ीगिरी मक्का से लेकर मॉस्को तक जाती थी, और बीच में कृष्ण की मथुरा भी पड़ती थी। हाँ, कृष्ण उनके लिए एक अलहदा जगह रखते थे। कोई भी सोच सकता था कि ये आदमी जो हिंदू-मुस्लिम एकता की इतनी बात करता है, वो मौलाना होते हुए भी मथुरा के मोहन का इतना बड़ा आशिक़ कैसे हो सकता है? मगर यही तो हसरत मोहानी थे—किसी दायरे में फिट ना बैठने वाले!
आपको वो मशहूर ग़ज़ल याद होगी—
"चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है,
हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है।"
ये ग़ज़ल हर आशिक़ के दिल में होगी, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसे हसरत मोहानी ने जेल में लिखा था? वो इश्क़ जो कैद की सलाखों के पार था, वो तड़प जो आज़ादी की लड़ाई में भी कम नहीं हुई।
साल 1946 में संविधान सभा बनी। हसरत मोहानी भी उसमें सदस्य थे। मगर जब संविधान पर दस्तख़त करने का वक्त आया, तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया। बोले—"ये संविधान किसानों और मज़दूरों के हक़ की रहनुमाई नहीं करता!
जब हर नेता अपनी कुर्सी पक्की कर रहा था, तब ये आदमी सिर्फ़ एक रुपये की तनख्वाह ले रहा था—वो भी पंडित नेहरू के बहुत कहने पर। ऐसा फकीर मिजाज नेता, जो संसद में बैठकर भी सत्ता से दूर था।
ये आदमी कांग्रेस के साथ था, मगर कांग्रेस की हर बात नहीं मानता था। गांधी के साथ था, मगर उनके हर फैसले पर सवाल करता था। भगत सिंह के विचारों से सहमत था, मगर अपने रास्ते पर चलता था। यानी उनका इंकलाब सिर्फ़ अहिंसा तक सीमित नहीं था, बल्कि जहां ज़रूरत हो, वहाँ ताक़त से भी इंकार नहीं था। 13 मई 1951 को लखनऊ में उन्होंने आख़िरी सांस ली।
उनके जाने के बाद कोई बड़ा स्मारक नहीं बना, कोई सरकारी सम्मान नहीं मिला। जैसे सत्ता ने उनकी यादों पर धूल डाल दी हो। मगर एक चीज़ आज भी ज़िंदा है—उनका नारा!
"इंकलाब ज़िंदाबाद!"
अब सोचिए, अगर हसरत मोहानी न होते, तो भगत सिंह, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में कौन सा नारा लगाया होता? क्रांति की वो आवाज़ जो फांसी के फंदे तक गूंजती रही, वो इसी शायर की देन थी। हसरत मोहानी .... एक सोच, जो मोहब्बत और बग़ावत दोनों से बनी थी।
Baten UP Ki Desk
Published : 9 February, 2025, 1:02 pm
Author Info : Baten UP Ki