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एक ऐसा कलमकार जिसने महाभारत को घर-घर तक पहुंचाया...

"मैं समय हूं..."—इन शब्दों की गूँज आज भी सुनते ही 90 के दशक की सुनहरी यादें ताजा हो जाती हैं। यह वह समय था जब दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक ‘महाभारत’ के दौरान देशभर की गलियों में सन्नाटा पसर जाता था। हर उम्र के लोग टीवी स्क्रीन के सामने एकत्रित हो जाते थे। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि इस ऐतिहासिक धारावाहिक के संवादों को अपनी कलम से जीवंत करने वाले लेखक थे—राही मासूम रज़ा।

एक महान साहित्यकार का सफर

1 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर में जन्मे राही मासूम रज़ा ने अपनी लेखनी से भारतीय साहित्य और सिनेमा को समृद्ध किया। हालांकि, जब बी. आर. चोपड़ा ने उन्हें ‘महाभारत’ के संवाद लिखने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने अपनी व्यस्तता के चलते इसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन जब यह खबर फैली कि एक ग़ैर-हिंदू लेखक महाभारत लिखने वाले हैं, तो विरोध की लहर उठी।

लोगों ने सवाल उठाया—"क्या इस देश में कोई हिंदू लेखक नहीं बचा, जो महाभारत लिख सके?" यह सुनकर रज़ा का खून खौल उठा। उन्होंने तुरंत चोपड़ा साहब को फोन किया और कहा, "महाभारत अब मैं ही लिखूंगा। मैं गंगा का बेटा हूँ। मुझसे ज़्यादा हिंदुस्तान की संस्कृति और सभ्यता को कौन जानता है?" इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन गया। ‘महाभारत’ के संवाद आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं और राही मासूम रज़ा का नाम भारतीय टेलीविजन के स्वर्णिम अध्यायों में दर्ज हो गया।

सिनेमा और साहित्य में योगदान

राही मासूम रज़ा का सफर आसान नहीं था, लेकिन एक बार जब उनकी कलम चली, तो वह कभी रुकी नहीं। उन्होंने 300 से अधिक फिल्मों के संवाद लिखे, जिनमें ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘मिली’, ‘कर्ज़’, ‘लम्हे’ जैसी कालजयी फिल्में शामिल हैं। उन्हें ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला।

हालांकि, सिनेमा से कहीं अधिक उनकी पहचान साहित्य में बनी। उनके लिखे उपन्यास—‘आधा गाँव’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘ओस की बूंद’—भारतीय समाज का आईना हैं। उनकी लेखनी ने समाज के वर्गभेद, सांप्रदायिकता और मानवीय संवेदनाओं को बेबाकी से पेश किया।

एक अमर लेखक की विरासत

राही मासूम रज़ा सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि भारतीय साहित्य और संस्कृति की एक बुलंद आवाज़ थे। उनकी शायरी, उनके उपन्यास, और उनके लिखे संवाद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे।

15 मार्च 1992 को जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो भारत ने न सिर्फ एक लेखक को खोया, बल्कि एक ऐसी शख्सियत को भी खो दिया जिसने शब्दों के माध्यम से इतिहास को जीवंत रखा। पर सच तो यह है कि कुछ नाम तारीखों में नहीं, बल्कि अल्फ़ाज़ में अमर हो जाते हैं।

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