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मुद्दा बुराई खत्म करने का या सीमित सोच पर लीपापोती का?

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सवाल है अफसर की नैतिकता का, सवाल है दाम्पत्य जीवन का, सवाल है बच्चो की कस्टडी और उनके भविष्य का, और सवाल है भारत की उस सांस्कृतिक विरासत का जिसमें शादी को कभी संविदा नहीं समझा गया बल्कि संस्कार माना गया लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल है कि ये सारे सवाल पूछे क्यों जा रहे हैं क्या इसलिए कि समाज सच में इन सभी बुराइयों पर चिंतित है या फिर इसलिए कि इस बार ये सारे सवाल एक औरत के व्यक्तित्व से जुड़े हैं और समाज को अब अपनी नींव के सभी पत्थर हिलते हुए दिख रहें हैं।


दरअसल ज्योति मौर्या से जुड़ी वो सारी बुराइयां उतनी ही गलत है जितनी कि वो तब गलत होती जब वो किसी पुरुष से जुड़ी होती। निश्चित ही पुरुष आयोग की मांग भी जायज है और उस पुरुष की पीड़ा भी जायज है और उससे भी पहले उन बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना भी जायज है, पर सवाल यह है कि ये समाज कितना सच जानता है कि उन दोनों के वैवाहिक जीवन में किस तरह की समस्या थी या क्या किसी को उस झूठ का सच पता है कि शादी में ग्राम पंचायत अधिकारी रहा पति तलाक के समय सफाई कर्मचारी कैसे हो गया।


यह मामला कितना बुरा है या इसमें किस तरह के तथ्य छुपाए या सामने लाये गए हैं इसके कोई साक्ष्य मेरे पास तो नहीं हैं लेकिन सोशल मीडिया के मीम्स, रील्स और समाज के लोगो पर इनके दुष्प्रभाव की गैर-न्यायोचितता जरूर दिख रही है। घर के बाप-भाई, समाज के अन्य पुरुष जिनके पास बरसो से बेटी को पढ़ाने का, उन्हें अपना निर्णय खुद लेने लायक बनाने का एक भी तर्क नहीं था आज उन्ही लोगो के पास लड़कियों या अपने घर की महिलाओं को न पढ़ाने के सारे तर्क मौजूद हैं। 


क्या यंहा ऐसा नहीं लग रहा कि खुद को प्रगतिवादी बताने के लिए पुरुषों ने औरतों को बराबरी का दर्जा तो दे दिया था पर वो इस ताक में जरूर बैठे थे कि अभी तक जो आज़ादी लड़कियों को नहीं दी गयी थी या अभी नहीं दी जा रही है उनके पक्ष में इसी तरह के तर्क दे दिए जायेंगे कि लड़कियां तो पढ़ कर अनैतिक हो जाती हैं और उन्हें आज़ादी देना मतलब समाज को अनैतिक बनाना है।


इस तरह की गतिविधियों या तर्कों को देखने के बाद तो यही लग रहा है कि ये समाज के हितैषी नहीं बल्कि बरसाती मेढक हैं जो किसी विशेष समय पर निकल कर राजनीति पर रील बनाएंगे, आरक्षण के विवादित होने का कारण बताएँगे, जातिवाद की मूल सार्थकता के लिए वेदों का ज्ञान ले आएंगे, हॉनर किलिंग को अपनी शौर्यगाथा बताएँगे, सरकार और नेता को लोकसेवक के बजाय अपना ईश्वर बताएँगे और इतना बतियाने के बाद अपने घर में जाकर चुपचाप आराम फरमायेंगे। न इन्हे पहले समाज की असल समस्या से मतलब था न ही इन्हे अब समाज से मतलब है, अगर इन्हे किसी चीज से मतलब है तो वो है निंदारस से या फिर अपनी बातों को सही साबित करने के उन सारे तर्कों से जिनसे ये किसी की भी बेज्जती कर सकते हैं, किसी को देशद्रोही बता सकते हैं, किसी को प्रो-हिन्दू या प्रो-मुस्लिम बता सकते हैं। भारत कबसे इतनी सीमित सोच और विचारधारा की संरक्षा करने लगा, असल में इस पर विचार करने की जरुरत है।

लेखिका-कोमल 

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