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‘बच्चे मन के सच्चे’, ‘ये वो नन्हे फूल है जो भगवान को लगते प्यारे’। लता मंगेशकर के लोकप्रिय गीत की यह पंक्तियाँ शायद आज भी आप के मन में कहीं न कहीं बसी हुई होंगी, जो बच्चों की मनोस्थिति को सटीक रूप से प्रतिबिंबित करती हैं। बच्चे गीली मिट्टी की तरह निराकार होते हैं, वह जैसे-जैसे अपना आकार लेते हैं उसी के साथ वह देश के एक नये भविष्य का निर्माण करते हैं। राष्ट्र मात्र एक स्थान से संबोधित नहीं किया जा सकता है, यह उसके लोग और आने वाली पीढ़ियों का साक्षात निरूपण हैं। क्या हो अगर राष्ट्र का यह मूल भविष्य ही ख़तरे में आ जाये? क्या हो, अगर इन भविष्यरूपी फूलों के लिए हम उचित वातावरण प्रदान ना कर पाए? क्या हो, अगर ये नन्हें फूल खिलने के बजाए मुरझाने लगे?
बच्चों द्वारा की गई आत्महत्या की संख्या में बढ़ोतरी-
यह सवाल सुनने में शायद कष्टदायक हो सकते है किंतु वर्तमान परिदृश्य में इन सवालों पर गहन चिंतन अनिवार्य है। देश में अप्रैल मई का महीना बच्चों के लिए अक्सर हलचल भरा होता है क्योंकि यही वो समय है जब उनके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे होते हैं। यहीं वो समय है जब स्कूलों में नये सत्र की शुरूआत हो रही होती है और मार्च में हुई परीक्षाओं के नतीज़े आ रहे होते हैं। यही वह समय है जब बच्चे एक नये पड़ाव में कदम रखतें हैं, चाहे वह नयी कक्षा में संवर्धन हो या फिर कॉलेज लाइफ की नयी शुरुआत हो। किंतु यह बदलाव हर किसी के लिये एक समान नहीं होते, जहां एक ओर यह किसी के लिये जीवन की नई शुरुआत की किरण लाते हैं वही दूसरी ओर किसी के लिए निराशा का अंधेरा। तेलंगाना में हाल में सामने आयी बच्चों द्वारा की गई आत्महत्याओं की खबरें संभवतः इसी अंधेरे की ओर संकेत करती हैं। यहाँ इंटरमीडिएट के परिणाम घोषित हुए ही थे,कि कुछ घंटों के भीतर ही राज्य के अलग अलग भागों से 7 बच्चों की मृत्यु की खबरें आने लगी, जिनकी उम्र 17 वर्ष से कम थी। इन छत्रों में से एक बालक मंछेरियल ज़िले से था जो कि इंटरमीडिएट फर्स्ट ईयर की परीक्षा में चार विषयों में फेल हो गया था। अन्य घटनाओं में भी छात्रों की उम्र 16-17 वर्ष के बीच ही थी, जो एक या उससे ज़्यादा परीक्षाओं में असफल थे। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि अभी हाल ही में हुए आईआईटी जेईई मेंस की परीक्षा में 100 परसेंटाइल लाने वाले 56 छात्रों में से 15 तेलंगाना से थे। यह छात्र आत्महत्याओं की घटनाएँ मात्र तेलंगाना तक सीमित नहीं बल्कि पूरे देश में ऐसी घटनाएँ सक्रिय हैं। अभी हाल ही में नोएडा के एक छात्र ने 12वीं बोर्ड परीक्षा देने के कुछ ही घंटों के अंदर एक बिल्डिंग के 22वें फ्लोर से कूदकर जान दे दी। कोटा राजस्थान, जो की मेडिकल और इंजीनियरिंग विश्वविद्यालयों में दाख़िले के लिए हो रही प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी का तीर्थस्थल माना जाता हैं, जो अक्सर ऐसी घटनाओं का साक्षी बनता है। 2023 में कोटा से 26 ऐसे आत्महत्या के मामले सामने आये, जबकि 2024 में मार्च तक ऐसी घटनाओं की संख्या 6 थी।
एनसीआरबी के आंकड़े
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया रिपोर्ट 2023 कि अनुसार, 2022 में 13,044 छात्रों ने अपनी जान ली, जो की आत्महत्या द्वारा हुई मृत्यु दर का 7.6 प्रतिशत थी। हालाँकि यह रिपोर्ट उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली छात्रों और स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों में अंतर नहीं करती और ना ही छात्र आत्महत्याओं के कारणों को विशिष्ट रूप से स्पष्ट करती है।
छात्र आत्महत्याओं का बढ़ता चलन और शैक्षणिक तनाव
भारत की कुल आबादी का 53.7 फीसदी 25 वर्ष से कम के किशोर तथा युवाओं का प्रतिनिधित्व करती है। हालाँकि इस प्रतिशत का महत्वपूर्ण हिस्सा अपेक्षित कौशल के अभाव के कारण बेरोज़गार हैं। अक्सर देश में आत्महत्या को एक व्यक्तिगत मामला माना जाता हैं जिस कारण हमारा समाज जवाबदेही से बच जाता हैं, जो कि ग़लत है। आत्महत्या भी, अन्य बहुआयामी सार्वजनिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधित मुद्दों के समान एक महत्वपूर्ण मुद्दा हैं, जिसका व्यक्तिगत और सामूहिक अस्तित्व के महत्वपूर्ण क्षेत्रों के साथ जटिल संबंध हैं। छात्र आत्महत्याओं को भारत के शैक्षिक संरचना में गंभीर कमी को भी इसके एक संकेत के रूप में देखा जा सकता हैं, जिसमें संस्थागत संरचना, पाठ्यक्रम, आदि शामिल हैं।
शिक्षा, समाज का एक महत्वपूर्ण अंग-
शिक्षा समाज का एक महत्वपूर्ण अहम अंग है जो आने वाली पीढ़ी को एक जिम्मेदार नागरिक बनाने में सहायता करती हैं। इसके अलावा यह उपकरण अन्य आयामों में भी सहायक हैं, राज्य इसका उपयोग अपनी विचारधारा क़ायम रखने के लिए करते हैं। भारतीय संविधान आर्टिकल 21-A, आर्टिकल 51-A(k) भी इस बात पर बल देते है। सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले, भीमराव अंबेडकर, पेरियार और नारायण गुरु जैसे समाज सुधारक ने इसका उपयोग समाज को उत्पीड़न से मुक्त कराने के लिए किया।
छात्रों पर आजीविका का बढ़ता दबाव-
वर्तमान में, शिक्षा का रूपांतरण कुछ इस तरह हुआ के इसे ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम ना समझ कर, इसे आजीविका के प्रवेश द्वार के रूप में देखा जाने लगा। कई छात्र और उनके परिवार इसे सामाजिक, जाति, और वर्ग संबंधित समस्याओं से उभरने के साधन के रूप में देखने लगे। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद, जब संगठित पब्लिक सेक्टर नौकरियों की हिस्सेदारी घटने लगी, औपचारिक निजी नौकरियों तथा महिमंडित सरकारी नौकरियों के लिए समाज और दबाव देने लगा। छात्रों पर समाज शिक्षा संबंधित कई दबाव डालता रहा है, जिसके कारण उन्हें हाशिये में धकेल दिया जाता हैं। इसमें अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा की कमी, निजी स्कूलों द्वारा ज़्यादा फ़ीस लेना, सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता वाली शिक्षा की कमी, लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता, स्नातक युवाओं में पर्याप्त कौशल की कमी, आदि शामिल हैं। इसके अलावा जातिगत भेदभाव भी छात्रों में बढ़ते शिक्षा दबाव का बड़ा कारण हैं।
मेहनत के बदौलत ही मिल सकती है सफलता
नवउदारवाद का उदय भी युवाओं को अपनी विफलता के लिए ख़ुद को दोषी ठहराने के लिए प्रेरित करता है। यह एक आर्थिक और सामाजिक विचारधारा है जो समाज को अपनी मूल जिम्मदारियों से बचने का मार्ग देता हैं। नवउदारवाद, इस अवधारणा को सामान्य बनाता है कि अगर कोई पर्याप्त मेहनत करे तो सफलता पाना इतना कठिन नहीं हैं। अर्थात् अपनी असफलताओं के लिए युवा स्वयं जिम्मेदार हैं। छात्रों को शिक्षा के मूल प्रक्रिया से ही दूर रखा जा रहा हैं, इसके विपरीत उन्हें शोषण, जातिगत असमानताएँ, आर्थिक असमानताएँ आदि का सामना करना पड़ता हैं। व्यावहारिक यानी की एक्टिविटी बेस्ड शिक्षा उन्हें शिक्षा से जुड़ने तथा उसे अपने जीवन की वास्तविकता में लागू करने में असमर्थ बना देता हैं। इस संकट को ख़त्म करने की बजाए सामाजिक आर्थिक ताकतें छात्रों के सपने और आकांक्षाओं को अपना शिकार बनाने लगे।
सामाजिक जवाबदेही की ज़रूरत-
एक व्यक्ति के जीवन में उसके परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है, यह परिवार ही है जो एक छात्र के जीवन में उसके सपने और महत्वाकांक्षाओं को आकार देता है। छात्रों के बीच बढ़ती आत्महत्या की संख्या, भारतीय पारिवारिक संरचना के सहायता दृष्टिकोण पर भी बड़े प्रश्नचिह्न खड़े कर देती है और यह सोचने पर मजबूर कर देती है, कि क्या वाक़ई वर्तमान भारतीय परिवार संरचना इस बढ़ती संख्या के योगदानकर्ताओं में से एक हैं?
छात्रों पर सामाजिक सम्मान बढ़ाने की जिम्मेदारी
भारत में ज़्यादातर परिवारों में यह धारणा रही है कि उनका बच्चा उनके सम्मान को समाज में आगे बढ़ाये। हालाँकि यह सम्मान की अवधारणा उन्हें इस बात से आती हैं कि उनका बच्चा कक्षा में कितने नंबर ला रहा हैं, कितने अच्छे स्कूल में जा रहा है या फिर कितने अच्छे कॉलेज में उसका दाख़िला हो रहा है। ये महत्वाकांक्षा सिर्फ़ कॉलेज तक सीमित नहीं रहती बल्कि उनकी नौकरी या फिर वो अपने आगे का जीवन किस तरह जिएगा इस पर भी होती है। काफ़ी हद तक ये बात ग़लत नहीं, एक इंसान को जीवन में राह दिखाने में महत्वपूर्ण योगदान उसका परिवार तथा शिक्षक आदि ही करते हैं। परंतु अपनी सोच में नये सोच को जगह न देना और अपनी अवधारणाओं में इतना अडिग रहना की उसमें नयी विचारधारा के लिए जगह ही न बने, विवाद का कारण बनती हैं।
बच्चों के जीवन को गढ़ने में शिक्षक का महत्व
अध्यापकों की भूमिका बच्चों के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि वह एक शिक्षक ही होता है जो एक बच्चे के जीवन की नींव को गढ़कर नया आकार देता है। छात्रों के जीवन को नया आयाम देते समय शिक्षक को अपने निजी विचारो से परे हटकर एक छात्र के जीवन को नई बुलंदियों तक पहुंचाने में निरंतर लगे रहना चाहिए। भारत में एक शिक्षक का मात्र ज्ञानी होना काफ़ी नहीं है, हमें ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है जो ज्ञानी के साथ साथ इमोशनल इंटेलिजेंस का भी प्रयोग करते हों, जो एक बच्चे( किसी भी उम्र के बच्चे) की मनोस्थिति को समझ कर विवेकपूर्ण ढंग से सामने आयी स्थिति से निपटारा करते हों। उनका काम, पढ़ाने को मात्र अपना काम समझ कर ख़ानापूर्ति करना नहीं बल्कि उन्हें छात्रों का हर स्तर पर तार्किक मार्गदर्शन करना चाहिए। सामाजिक स्तर पर भी, हमें यह समझना होगा कि एक बच्चे का संपूर्ण विकास हमारा विकास है। कभी कभी छात्रों कीआत्महत्या के कारण परिवार और शैक्षिक व्यवस्थाओं से परे सामाजिक कुरीतियों में छिपे होते हैं। इसमें परिवार की आर्थिक स्थिति, बुलिंग, रैगिंग, पीयर प्रेशर, या सामाजिकता में पल रही कई कमियां शामिल हैं, जो युवा मन को प्रभावित करती हैं। हमे सामाजिक स्तर पर भी कई सुधारों की आवश्यकता है जिससे हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के विकास का उचित वातावरण तैयार कर सकें। यह एक फ्यूजन की तरह साबित होगा जो, देश को विकास की निरंतर प्रक्रिया की ओर आगे बढ़ाएगा।
संभावित समाधान और उपाय
बच्चों के मन में यह बैठाना ज़रूरी है कि जीवन में उन्नति पाने के लिए सिर्फ़ अच्छे अंक लाना ज़रूरी नहीं, यह हाल ही दिल्ली उच्च न्यायालय का आईआईटी जैसे संस्थानों से आग्रह था। हमे ऐसे कदम उठाने की ज़रूरत है जो एक संतुलित परिप्रेक्ष्य को बढ़ावा देते हुए ऐसे वातावरण का निर्माण करें, जहां छात्र तनाव के कुप्रभावों के आगे बिना झुके अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सके। इसके लिए हमें व्यक्तिगत स्तर के साथ साथ सामाजिक स्तर पर भी एक अनुकूल वातावरण का निर्माण करना होगा जहां हमारी अगली पीढ़ी हर स्तर पर फल-फूल सके।
ऋषिका तिवारी
(लेखिका सामाजिक कार्यों से जुड़ी हैं और सामाजिक मुद्दों पर मुखरता से अपनी बात रखती हैं।)
Baten UP Ki Desk
Published : 25 May, 2024, 4:20 pm
Author Info : Baten UP Ki