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एमएसपी के चक्रव्यूह में फंसे कई सवाल...सरकार की चुनौतियां कैसे करे सर्वसमावेशी उपाय ?

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एमएसपी, किसान और समाधान। इस समय देश में यह सबसे बड़ी चर्चा है। आंदोलनकारियों की बात सुनकर लगता है जैसे एमएसपी लागू होते ही किसानों की समस्या का अंत हो जाएगा। भारत का कृषि सेक्टर संवर जाएगा। पर क्या वाकई में ऐसा है। या फिर ऐसा बहुत कुछ है जो अब भी जनता के सामने नहीं पा रहा है। सरकार इसे लागू करना नहीं चाहती या देश की घाटे की अर्थव्यवस्था मजबूरी है। इसे जानना बहुत जरूरी है। एमएसपी का फायदा किसे और कितना मिलेगा? क्या हैं इसके पहलूआइए जानते हैं-

छोटे किसानों के पास नहीं हैं बेसिक सुविधाएं

देश के कृषि सेक्टर को मजबूत बनाना है तो छोटे किसानों को राहत पहुंचानी होगी। दों बातें देखनी जरूरी हैं। पहली यह कि अगर एमएसपी कानून बन जाता है तो एमएसपी पर फसलें कौन खरीदेगा और दूसरा हमारी कृषि व्यवस्था का ढांचा क्या है। देश में 78 फीसद किसानों के पास 2 एकड़ से कम जमीन है। इनकी उपज इतनी कम होती है कि एमएसपी का फायदा नहीं मिल पाएगा। नीति आयोग की जनवरी 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक बस छह प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। क्योंकि 85 प्रतिशत से अधिक किसान छोटे और मंझले हैं।

  • एमएसपी के लिए फसल का गुणवत्ता के नियमों पर खरा उतरना जरूरी होता है। थोड़ी भी गड़बड़ी हुई तो क्रय केंद्र से फसल लौटा दी जाती है। मसलन मॉइस्चर या गंदगी होने पर उन्हें क्रय केंद्र से लौटा दिया जाता है। ऐसे में दलालों के जरिए उन्हें एमएसपी से कम दाम पर फसल बेचनी पड़ती है।
  • छोटे किसानों के पास भंडारण यानी स्टॉक करने की क्षमता नहीं है। उचित संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं। तो दलालों के पास जाना पड़ता है।
  • फसल कटाई के बाद खेत से बाजार तक लाना बड़ी चुनौती है। इधर से उधर लाने ले जाने का खर्चा कौन करे। तो समझौते के साथ सबसे पास वाले बाजार में फसल बेचनी पड़ती है। एक फसल का पैसा मिलने पर उससे नई बुआई की तैयारी होती है। इसलिए ज्यादा इंतजार संभव नहीं हो पाता।
  • ग्रामीण इलाकों में बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, बिजली और सिंचाई सुविधाएं कृषि बाजारों की बहुत कमी है।

पंजाब और हरियाणा में एमएसपी की मांग सबसे ज्यादा होती है। इसकी बड़ी वजह है वहां मंडी व्यवस्था दुरुस्त है। पंजाब में हर पांच-छह किमी पर मंडी मिल जाती है। यही हाल हरियाणा में है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में करीब 1850 खरीद केंद्र, 152 बड़ी अनाज मंडियां और 28000 के करीब रजिस्टर्ड आढ़ती हैं। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में बड़ी संख्या में किसान (विशेष रूप से पूर्वांचल) एमएसपी के बारे में या तो जानते नहीं हैं या बहुत कम जानते हैं। इन किसानों तक दलालों की पहुंच आसान है। एमएसपी लागू करना है तो पहले जरूरी है देश भर में मंडी व्यवस्था को सुधारा जाए। इसके अभाव में एमएसपी व्यवस्था का लाभ मुट्ठी भर किसानों को ही मिलेगा।

सब्सिडी के बावजूद एमएसपी

किसान को बिजली, खाद आदि पर सब्सिडी मिलती है। फसल बीमा योजना के तहत भी पैसा मिलता है। समय-समय पर ऋण माफी भी होती रहती है। इसके बाद हर फसल पर एमएसपी की गारंटी भी चाहिए। विकासशील देश की अर्थव्यवस्था में ये किसी सरकार के लिए संभव नहीं है। ये समझना होगा कि सरकार व्यापारी नहीं है जो फसलों की खरीद-फरोख्त का काम करेगी। सरकार पहले से ही 23 फसलों पर एमएसपी दे रही है। इससे देश में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी पैदा हो जाएगी।

कृषि को सुधार चाहिए सिर्फ एमएसपी फसलों को नहीं

एमएसपी लागू होते ही सरकार को सालाना कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त आर्थिक व्यय वहन करना होगा। वित्त वर्ष 2020 में देश की कृषि उपज का कुल मूल्य 40 लाख करोड़ रुपये था। इसमें खेती के साथ डेयरी, बागवानी, पशुधन भी शामिल हैं। 40 लाख करोड़ रुपये में एमएसपी वाली कृषि उपज का बाजार मूल्य 10 लाख करोड़ था। इसलिए कानून लागू करने पर सरकार को करीब-करीब इतना ही खर्च और करना पड़ेगा। करीब-करीब इतनी ही राशि (11.11 लाख करोड़ रुपये) सरकार ने हाल के अंतरिम बजट में बुनियादी ढांचे के लिए रखी है। जब इस राशि से पूरे कृषि सेक्टर के बुनियादी ढांचे को दुरूस्त किया जा सकता है तो फिर सिर्फ एमएसपी पर ही इतना बड़ा खर्च क्यों? जबकि कृषि सेक्टर में एमएसपी वाली फसलों का हिस्सा कुछ ही प्रतिशत है। फिर इससे पूरे कृषि सेक्टर के सुधार को जोड़ना तर्कसंगत नहीं है।

एमएसपी से ज्यादा कीमतें भी मिलती हैं

पिडले वर्ष तुअर और उड़द समेत 5 खरीफ फसलों का मंडी भाव एमएसपी से अधिक रहा था। मूंगफली का मंडी भाव बेंचमार्क दरों के बराबर है। गत वर्ष ज्वार, तुअर, कपास, उड़द धान (गैर बासमती) की अखिल भारतीय औसत कीमतें उनके एमएसपी से 5 से 38 प्रतिशत तक अधिक रहीं। पर राजस्थान मूंग की कीमतें एमएसपी से नीचे थीं। इसी तरह कर्नाटक में मक्के की कीमतें एमएसपी से अधिक थीं, जबकि पूरे भारत में वे कम  दिख रही थीं। जो कि अन्य राज्यों में गुणवत्ता के कारण हो सकता है। वास्तविकता में यही उतार-चढ़ाव एमएसपी पर गारंटी के लिए बाधक है। ऐसी जटिलताओं के चलते बड़े किसानों के लिए एमएसपी भले ही फायदे का सौदा हो जाए गरीब किसान रोता ही रह जाएगा।

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फल-सब्जी के किसान भी मांगेंगे एमएसपी

फसलों पर एमएसपी की गारंटी के बाद फल सब्जी उगाने वाले किसान भी यही गारंटी मांगेंगे। सरकार किसानों में भेदभाव कैसे करेगी? जबकि सब्जी उगाने वाले किसान अधिकतर छोटी जोत वाले होते हैं। ऐसे में केवल फसलों पर एमएसपी से सरकार पर पड़ने वाला 10 लाख करोड़ का आर्थिक बोझ और भी बढ़ जाएगा। वहीं सब्जी और फल जैसी रोज की आवश्यकता की चीजों की कीमतें भी उछाल लेंगी। इसमें ध्यान रखना होगा कि क्या आम उपभोक्ता की जेब इसके लिए तैयार है।

अंतरराष्ट्रीय समझौता

भारत जैसे विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लए बड़े पैमाने पर कर्ज की जरूरत होती है। यह अधिकांश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ और विश्व बैंक से मिलता है। इन दोनों संगठनों से पैसा लेने दूसरे देशों के साथ व्यापार करने के लए विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का सदस्य होना जरूरी है। भारत ने डब्लूटीओ के साथ अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हैं। समझौते में स्पष्ट है कि कोई सरकार बाजार भाव में दखल नहीं देगी। इसके मुताबिक सभी देश किसानों की सब्सिडी को धीरे-धीरे खत्म करेंगे। अब जबकि भारत ऐसा नहीं कर सकता तो इस पर कानून बनाया गया है। ऐसे में एमएसपी को भी दायित्व बनाना भारत की आर्थिक दृष्टि से ठीक नहीं है। जब भी भारत आयात चालू करता है तो घरेलू बाजार में अनाज की कीमतें नीचे चली जाती हैं। फिर बिचौलिए स्टॉक करते हैं। बाद में दाम ऊपर चले जाते हैं। वहीं देश में गेहूं और चावल का उत्पादन पहले से ही जरूरत से ज्यादा हो रहा है। बफर स्टॉक होने के बावजूद खरीद करनी पड़ रही है। ऐसे में एमएसपी कानून बन गया तो उन दामों पर फसल खरीदेगा कौन? स्वाभाविक सी बात है कि सरकार हर किसान की फसल को नहीं खरीद सकती। 

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कृषि का असंतुलन

ज्यादा किसान गेहूं और चावल की खेती करते हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना बड़ी मात्रा में पैदा होता है। जबकि देश को दालों और तिलहन की भी बराबर मात्रा में जरूरत है। इनका उत्पादन कम किसान करते हेँ। अगर सरकार एमएसपी कानून बनाएगी तो पहले ये निर्धारित करना होगा कि किस जगह कौन सी खेती करनी है। ताकि जरूरत के हिसाब से फसलें उगाई जा सकें। इसे मांग आधारित खेती कहते हैं।

बिजनेस हाउसेज से तुलना क्यों ?

बड़े बिजनेस हाउसेज और कंपनियों को हमेशा आमने-सामने रखा जाता है। जबकि आर्थिक दृष्टि से ये एक-दूसरे के पूरक हैं। ऋण माफी को लेकर अक्सर ये बात उठती है कि सरकार बड़े-बड़े व्यापारियों को कर्ज में बहुत रियायतें देती है। बिजनेसमैन जो इंडस्ट्रीज चलाते हैं या कंपनियां शुरू करते हैं, उनमें बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होता है। इन्हीं कंपनियों में नौकरीपेशा लोग देश का उपभोक्ता बाजार हैं। उनके पास पैसा नहीं होगा तो एमएसपी वाला खद्यान्न् भी सरकार किसे बेचेगी। जबकि कृषि मूलत: स्वरोजगार का साधन मात्र है। फिर भी ये सब कुछ एक-दूसरे पर आधारित है। एक साइकिल है, जिसे आर्थिक नजरिये से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।  इसलिए ये तुलना ठीक नहीं।

 सर्वसमावेशी उपाय चाहिए

किसान हित में और उसकी उपज के मूल्यों के हित में सरकार को निश्चित तौर पर कोई ठोस, कारगर और सर्वसमावेशी उपाय करने होंगे। किसान और खेती की बेहतरी और संरक्षण के माध्यम से देश में आर्थिक खुशहाली आएगी यह सत्य है लेकिन यह अन्य क्षेत्रों का नुकसान करने नहीं होना चाहिए।

 

 

Disclaimer

उपरोक्त लेख में लेखक के स्वयं के विचार हैं, इससे संस्थान का सहमत होना जरूरी नहीं है।

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