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समसामयिक मुद्दे भाग 5: विविधतापूर्ण देश में समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता

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भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहां एक तरफ विविधता का सम्मान, संरक्षण, पंथनिरपेक्षता की मूल भावना का संरक्षण जरूरी है, वहीं यह भी आवश्यक है कि देश में संवैधानिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकीकरण, विधि के शासन और जरूरी एकरूपता का भी संरक्षण हो । इसी संदर्भ में देश के 22वें विधि आयोग ने हाल ही में इस बात पर विचार करना शुरू कर दिया है कि समान नागरिक संहिता जो कि भारतीय संविधान के भाग-4 के तहत राज्य के नीति निदेशक तत्व में शामिल किया गया है जिसका अनुपालन एक संवैधानिक मूल्य है, उसे मूर्तमान बनाने के लिए देश की जनता का मत जाना जाये।

सुप्रीम कोर्ट भी अपने कई निर्णयों में इस बात पर बल दे चुका है कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाए। 22वें विधि आयोग ने इसकी पहल इसलिए भी की है क्योंकि देश में समय और परिस्थिति के अनुसार कानूनों की प्रासंगिकता पर विचार करना उसका काम है। देश में किसी कानून में एकरूपता की सामाजिक, सांस्कृतिक और मानव हित में कितनी जरूरत है? इस पर विचार करना विधि आयोग की सलाहकारी भूमिका के अंतर्गत आता है, इसीलिए अब भारत का 22वां विधि आयोग अन्य बातों के साथ-साथ समान नागरिक संहिता की जांच कर रहा है. जो कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा भेजा गया एक संदर्भ है। प्रारंभ में भारत के 21वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता विषय की जांच की थी और फिर सार्वजनिक अपील / नोटिस के माध्यम से सभी हितधारकों के विचार आमंत्रित किये थे। इसी के अनुसरण में विधि आयोग को बड़ी संख्या में प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुई थीं। 21वें विधि आयोग ने 31 अगस्त, 2018 को 'परिवार कानून में सुधार' पर परामर्श पत्र जारी किया था। चूंकि उक्त परामर्श पत्र के जारी होने की तारीख से तीन वर्ष से अधिक बीत चुके हैं, विषय की प्रासंगिकता और महत्त्व एवं इस विषय पर विभिन्न न्यायालय के आदेशों को ध्यान में रखते हुए, भारत के 22वें विधि आयोग ने इस विषय पर नए सिरे से विचार-विमर्श करना आवश्यक समझा है, इसलिए भारत के 22वें विधि आयोग ने हाल ही में समान नागरिक संहिता के बारे में आम लोगों और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के विचारों एवं सुझावों को जानने का फिर से निर्णय लिया। चूंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां नागरिकों के मत को निर्णय निर्माण का जरूरी भाग समझा जाता है, इसलिए सहभागितामूलक लोकतंत्र की मूल भावना के साथ विधि आयोग ने यह कार्य किया है।

समान नागरिक संहिता से आशयः
समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिए एक समान कानून लाने का प्रस्ताव है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होगा, चाहे उनका धर्म, लिंग, जाति आदि कुछ भी हो। समान नागरिक संहिता अनिवार्य रूप से विवाह, तलाक, गोद लेने, गुजारा भत्ता या भरण पोषण विरासत अथवा उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में एकरूपता लाने का उपकरण है। वर्तमान में विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून काफी हद तक उनके धर्म द्वारा शासित होते हैं, इसलिए देश में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और विधि के शासन के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश की गई है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता पर इसी क्रम में विमर्शो को बढ़ावा दिया गया है। यूनिफॉर्म सिविल कोड के मूर्तमान रूप लेने से सिविल मामलों में देश एक कानून से प्रशासित होगा। सिविल कोड होने से विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने अथवा दत्तक ग्रहण और संपत्ति के बंटवारे जैसे तमाम विषयों में नागरिकों के लिए एक समान कानून होंगे।

भारत में समान नागरिक संहिता का इतिहासः
भारत में समान नागरिक संहिता का इतिहास ब्रिटिश कालीन कानूनों के विकास में देखा जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने 1840 में लेक्स लोकी की रिपोर्ट के आधार पर अपराधों, साक्ष्यों और अनुबंधों के लिए एक समान कानून बनाए थे लेकिन हिंदुओं तथा मुस्लिमों के व्यक्तिगत कानूनों को उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया गया था। ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या में वृद्धि ने सरकार को वर्ष 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये बी. एन. राव समिति गठित करने के लिये मजबूर किया। इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिये निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया। हालाँकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे। कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये। समान नागरिक संहिता की दिशा में विमर्श को शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था। मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण से संबंधित 1985 के चर्चित शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह अफसोस की बात है कि संविधान का अनुच्छेद- 44 'डेड लेटर' बना हुआ है। तब कोर्ट ने यह भी कहा था कि समान नागरिक संहिता से परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति जबरन वफादारी को दूर करके राष्ट्रीय एकता को मदद मिलेगी।

शाहबानो मामला (1985) व उसके बाद कई अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट इसकी जरूरत पर बल दे चुका है। इससे समान नागरिक संहिता लाने में केंद्र सरकार के पास कोई कानूनी अड़चन नहीं है। इसी तरह 1995 के सरला मुद्गल मामले में द्विविवाह और विवाह के मामलों में व्यक्तिगत कानूनों के बीच संघर्ष से संबंधित मुद्दा था। सुप्रीम कोर्ट ने फिर से समान नागरिक संहिता की आवश्यकता बताई थी, तब कोर्ट ने प्रधानमंत्री से अनुच्छेद 44 पर नए सिरे से विचार करने और भारत में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करने को कहा था एवं इससे संबंधित उठाए गए कदमों से न्यायालय को सूचित करने का अनुरोध किया था। सितंबर, 2019 में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान निर्माताओं ने उम्मीद जताई थी कि अनुच्छेद 44 के मद्देनजर राज्य पूरे देश में समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करेगा लेकिन अब तक इस संबंध में कोई प्रयास नहीं किया गया। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर धर्म के लिए एक जैसा कानून होगा। मौजूदा समय में मुस्लिम, ईसाई और पारसी के लिए अलग पर्सनल लॉ है, जबकि हिंदू सिविल कोड के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध अपने मामलों का निपटारा करते हैं। इस तरह की व्यवस्था की आड़ लेकर अन्याय और जुल्म भी होते रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तीन तलाक का है जिसे भारी विरोध के बाद मौजूदा सरकार ने खत्म कर दिया।

यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से न्यायपालिका पर मुकदमों का बोझ भी कम होगा क्योंकि धर्म की आड़ लेकर कुछ विशेष मामलों में होने वाले जुल्म पर कानून का शिकंजा कसेगा। यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध करनेवालों का तर्क है कि इसके लागू होने से लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं से वंचित हो जाएंगे और उन मान्यताओं को मानने का उनका अधिकार छिन जाएगा क्योंकि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से शादी-विवाह, जमीन-जायदाद, संतान और विरासत जैसे मामलों में जो अलग-अलग रियायतें है वे खत्म हो जाएंगी तथा हर धर्म के लिए एक ही कानून होगा। इसे लेकर सबसे ज्यादा विरोध कट्टरपंथी मुस्लिमों की ओर से हो रहा है जो इसे अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताते हैं। शाहबानो मामले में भी मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव के आगे ही तत्कालीन केंद्र सरकार को झुकना पड़ा था जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने हेतु कानून बनाना पड़ा था।

गोवा में लागू है यूनिफॉर्म सिविल कोड:
भारतीय संविधान में गोवा को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है। साथ ही संसद ने कानून बनाकर गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार दिया था। यह सिविल कोड आज भी गोवा में लागू है जिसको गोवा सिविल कोड के नाम से भी जाना जाता है। गोवा में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई समेत सभी धर्म व जातियों के लिए एक फैमिली लॉ है जिसका मतलब है विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के कानून सभी के लिए एक समान हैं। गोवा में किसी मुस्लिम को तीन बार तलाक बोलकर अपनी पत्नी को तलाक देने का हक नहीं हैं। इसके अलावा विवाह तभी कानूनी तौर पर मान्य होता है, जब उसका पंजीकरण कराया जाता है। गोवा में एक बार विवाह का पंजीकरण हो जाने पर तलाक सिर्फ कोर्ट से ही मिलता है।


गोवा में संपत्ति पर पति और पत्नी का समान अधिकार है। हिंदू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग कानून नहीं हैं। गोवा को छोड़कर देश के बाकी हिस्सों में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्म के लिए अलग-अलग नियम हैं। गोवा में ये भी नियम है कि पैरेंट्स को अपनी कम से कम आधी संपत्ति का मालिक अपने बच्चों को बनाना होगा जिसमें बेटियां भी शामिल हैं। इस राज्य में मुस्लिमों को चार विवाह करने का अधिकार नहीं है, लेकिन हिंदू पुरुष को दो शादी करने की छूट है। हालांकि इसके लिए कुछ कानूनी प्रावधान भी हैं। अगर हिंदू व्यक्ति की पत्नी 21 साल की उम्र तक बच्चे पैदा नहीं कर पाती है या 30 साल की उम्र तक लड़का पैदा नहीं करती है तो उसका पति दूसरी शादी कर सकता है।

समान नागरिक संहिता पर अन्य देशों की स्थिति:

इजराइल, जापान, फ्रांस और रूस में समान नागरिक संहिता या कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून हैं। यूरोपीय देशों और अमेरिका के पास एक धर्मनिरपेक्ष कानून है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है फिर चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है जो सभी व्यक्तियों पर लागू होता है. चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। वहीं भारत के संदर्भ में विधि निर्माताओं को यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि यूनिफॉर्म सिविल कोड संविधान के अनुच्छेद- 44 के अंतर्गत आता है जिसमें कहा गया है कि इसे लागू करना राज्य की जिम्मेदारी है। राज्यों का दायित्व है कि भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।

 

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