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निबंधात्मक मुद्दे भाग 12 : भारत में निजीकरण के निहितार्थ

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भारत में हाल के वर्षों में निजीकरण की प्रवृत्ति में वृद्धि देखी गई है इसके कुछ उदाहरणों में रेलवे में निजीकरण, सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण, एयर इंडिया की बिक्री आदि को देखा जा सकता है। सरकार का निजीकरण करने के पीछे तर्क इन कंपनियों की दक्षता सुधारना और सरकारी संसाधनों पर बोझ कम करने का होता है। 'गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस टू बी इन बिजनेस' की अंग्रेजी उक्ति का खूब प्रयोग किया जा रहा है। इस निबंध में निजीकरण, उसे करने के कारणों और निहितार्थों को समझेंगे।

निजीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा निजी क्षेत्र किसी सार्वजनिक उद्यम का स्वामित्व प्राप्त करता है। यूं तो निजीकरण कोई नई अवधारणा नहीं है किंतु भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश में जहां सरकार से अपेक्षाएं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही बहुत अधिक रही हैं, वहां निजीकरण विरोध का एक आधार बन जाता है। भारत में निजीकरण की एक नीति के रूप में शुरुआत वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों के तहत प्रारंभ की गई। इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों में कमी, बड़े औद्योगिक घरानों को विस्तार में छूट, लाइसेंस अनिवार्यता की समाप्ति एवं विधानों का सरलीकरण प्रारंभ किया गया। इसके अलावा विदेशी निवेशकों को किसी उपक्रम में 51 प्रतिशततक इक्विटी पूंजी निवेश की छूट दी गई। अन्य सुधारों में रुपए की परिवर्तनीयता, रेगुलेटरी नियमों में सरलीकरण आदि सुधार किए गए। इन सबके फलस्वरूप एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें निजी उद्यमी अधिक स्वतंत्रता के साथ कार्य कर सकते थे। परिणामस्वरूप निजी निवेश में वृद्धि हुई और विदेशी निवेश भी बढ़ने लगा। निजीकरण करने के विभिन्न कारण हैं जो इसके प्रारंभ से ही देखे जा सकते हैं।

निजीकरण मूलत: मुक्त अर्थव्यवस्था की अवधारणा पर आधारित हैं। विकसित प्रथम विश्व के देशों में निजी क्षेत्र की सफलता मुक्त अर्थव्यवस्था और निजी क्षेत्र के विकास का आधार बनी। इसके बाद जापान तथा एशिया के नव औद्योगीकृत देशों (सिंगापुर, ताइवान, हांगकांग, कोरिया आदि) निजीकरण ने सफलता की नई कहानी लिखी। इन देशों ने अपने आर्थिक विकास के लिये निजीकरण का मार्ग चुना और अल्प समय में अपने तीव्र विकास से दुनिया को चकित कर दिया। इसके बाद निजीकरण की नीति विकासशील एवम् तृतीय विश्व के देशों के लिए एक विकल्प का रूप में देखी गई। भारत जैसे राष्ट्र के लिए भी इन देशों की आर्थिक सफलता एक मॉडल बन गई जिसे 1991 के आर्थिक सुधारों के साथ अपनाया गया। निजीकरण के पीछे दूसरा महत्वपूर्ण कारण सार्वजनिक उपक्रमों की अकुशलता है सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम निजी क्षेत्र की दक्षता और व्यवस्था के मानदंडों पर खरे नहीं उतरते और अलाभकारी सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के जो उपक्रम लाभ भी प्राप्त कर रहे हैं उनमें से अधिकांश एकाधिकारी कंपनियाँ हैं। इसके अलावा भी निजीकरण के कई अन्य उद्देश्य हैं यथा अर्थव्यवस्था की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों को जुटाना, कंपनियों को प्रबंधकीय योग्यता और दक्षता प्रदान करना तथा राष्ट्रीय आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप निजी क्षेत्र की उत्पादन क्रियाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ समन्वित करना। इसके अलावा नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना करने तथा आयात प्रतिस्थापन जैसे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी निजीकरण को बढ़ावा दिया जाता है। उपयुक्त तकनीक के प्रसार, अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा शोध व विकास को बढ़ावा देने में भी निजीकरण को सहायक के रूप में देखा जाता है।

भारतीय संदर्भ में निजीकरण के विभिन्न निहितार्थ हैं :
निजीकरण, निजीकृत कम्पनियों को बाजार अनुशासन से अवगत कराएगा। जिसके परिणामस्वरूप वे और अधिक दक्ष बनने के लिए बाध्य होंगे और वित्तीय और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकेंगे। इसका का पूंजी बाजार पर लाभकारी प्रभाव होगा। निवेशकों के लिए अधिक विकल्प होंगे और निजीकृत कम्पनियों द्वारा अपनी परियोजनाओं अथवा उनके विस्तार के लिए निधियां जुटाने में सहायता मिलेगी। पूर्व के सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित क्षेत्रों को उपयुक्त निजी निवेशकों के लिए खोल देने से आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि होगी साथ अर्थव्यवस्था, रोजगार और कर राजस्व पर कुल मिलाकर लाभकारी प्रभाव पड़ेगा। वर्तमान दूरसंचार कंपनियों के अनुभव बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त हो जाने से प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी। अधिक विकल्पों और सस्ते तथा गुणवत्ता वाले उत्पादों और सेवाओं से उपभोक्ताओं को बेहतर लाभ मिलेगा हालांकि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां सरकार से कल्याणकारी राज्य की अपेक्षाएं बहुत हैं, निजीकरण के कई खतरे तथा चुनौतियां भी हैं। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-

निजीकरण की प्रक्रिया में सबसे बड़ी चुनौती श्रमिकों की ओर से होने वाले विरोध हैं वे बड़े पैमाने पर छँटनी और काम के वातावरण में परिवर्तन जैसी बातों से आतंकित हैं। उदाहरण के लिए बैंकों के निजीकरण के विरोध में धरना प्रदर्शन देखे जा रहे हैं। निजीकरण करते समय परिसंपत्तियों के उचित मूल्य आकलन की भी समस्या है। भ्रष्टाचार की स्थिति देखते हुए कम्पनियों के मूल्य आकलन पर विपक्ष प्रश्न उठता है। यह सम्भव है कि निजीकरण द्वारा बड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाने के लिए इसे प्रोत्साहित किया जाए। व्यापारी राजनीतिक गठजोड़ भारत में एक बड़ी चुनौती है प्रायः सरकारों पर निजी कंपनियों के पक्ष में निर्णय लेने के आरोप लगते है।

निजीकरण का लाभ तभी मिल सकता है जब बाजार में उच्च प्रतिस्पर्द्धा हो । प्रतिस्पर्द्धा के अभाव में निजीकरण उपभोक्ताओं के शोषण का माध्यम बन जाएगा। फिर यह आवश्यक भी नहीं है कि निजीकरण से विश्वस्तरीय तकनीकी व कार्यपद्धति आ ही जाए।

अत: समग्र रूप से कहा जा सकता है कि भारत में निजीकरण को अर्थव्यवस्था की समस्त समस्याओं के लिए रामबाण औषधि नहीं माना जा सकता। निजीकरण, कार्यकुशलता और औद्योगिक क्षेत्र की समस्याओं का एक मात्र उपाय नहीं है। उसके लिए समुचित आर्थिक वातावरण और कार्य संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन भी आवश्यक है। राज्य की कल्याणकारी भूमिका को देखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र की दक्षता बढ़ाई जानी अपेक्षित है इसके लिए आवधिक कौशल विकास प्रशिक्षण तथा निजीक्षेत्र के साथ भागीदारी की जा सकती है।

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