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7वीं शताब्दी में, अरबियों ने इराक, ईरान, सीरिया, मिस्र और उत्तरी अफ्रीका पर विजय प्राप्त करते हुए पश्चिम में स्पेन और पूर्व में भारत पर आक्रमण कर दिया और मुल्तान और सिंध क्षेत्र में इस्लामी खलीफ़ा बन गए। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में, भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी क्षेत्रों पर पूरी तरह से अरब सेनाओं का कब्जा हो गया। इसका सीधा प्रभाव भारत के भीतर अन्य राज्यों पर भी पड़ना शुरू हुआ। हालाँकि, उस समय अरब सेना के सामने, भारत में, गुर्जर-प्रतिहारों कि सेना खड़ी थी जिन्होंने लम्बे समय तक अरबी सेना को भारत में घुसने से रोके रखा। लेकिन, 8वीं शताब्दी के अंत और 9वीं शताब्दी की शुरुआत तक आते-आते अरबी सेना ने कन्नौज पर नियंत्रण पा ही लिया।
उस समय, सम्राट हर्ष की पूर्व राजधानी कन्नौज शहर पर विजयी पाना पूरे उत्तरी भारत पर वर्चस्व का दावा करने के बराबर था। कन्नौज पर शासन करने वाले शासक के सामने उस क्षेत्र के कई राजाओं को अपनी अधीनता की स्वीकारनी पड़ी। इस स्थिति का बंगाल के पाल वंश ने विरोध किया। यह राजवंश भारत में अंतिम बौद्ध राजवंश था जिसने दक्षिण-पूर्व एशिया के बौद्ध राज्यों के साथ मजबूत धार्मिक और राजनीतिक संबंध बनाकर रखे थे और यही वह राजवंश था जिसके काल में नालंदा विश्वविद्यालय अपने चरम पर भी पहुँचा।
पाल राजवंश स्वयं कभी उत्तर भारत में स्थायी प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सका। लेकिन, अगली दो शताब्दियों तक कन्नौज और क्षेत्रीय वर्चस्व के नियंत्रण को लेकर उसकी लड़ाई चलती रही। 9वीं और 10वीं शताब्दी के दौरान उत्तरी भारत के इतिहास में इन तीन राजवंश - पाल, राष्ट्रकूट और गुर्जर-प्रतिहार जैसे शक्तिशाली राज्यों के बीच युद्ध चलते रहे। तीनों ही ने किसी न किसी समय कन्नौज पर विजयी पाई, लेकिन अधिक समय तक टिक नहीं पाए। इस द्वन्द को "कन्नौज त्रिभुज" भी कहा जाता था; और उस अवधि को भारतीय इतिहास में "त्रिपक्षीय संघर्ष" के रूप में जाना जाता है। दिलचस्प बात यह रही कि निरंतर युद्धों का एक परिणाम राजपूत योद्धाओं का उदय होना भी रहा।
10वीं शताब्दी के अंत तक स्थिति बदलने लगी थी। मध्य युग के अंत तक भी उत्तर प्रदेश में उदारवादी परम्पराएँ फलती-फूलती रहीं। उस समय वाराणसी हिंदू शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बन चुका था और शर्की शासन के दौरान जौनपुर इस्लामी संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र हुआ। इस कारण जौनपुर को भारत का 'शिराज़' भी कहा गया। शर्की शासक संगीत के भी संरक्षक थे और कई प्रसिद्ध संगीतकार उस समय उनके दरबार में थे। जहाँ बृज क्षेत्र के लोगों में भक्ति संगीत केंद्र में उतरा वहीं अन्य दिशाओं में जो कि उत्तर प्रदेश में ही संभव था कि, उस दौर में जितना भी सूफ़ी विकसित हुआ, उसने हिंदू विचारों से भी प्रेरणा ली, जिसका दर्शन आज भी शब्दों-भावों में भी झलकता रहता है।
जहाँ तक उत्तर प्रदेश का संबंध है, कला के क्षेत्र में, सल्तनत काल अंधकार युग के रूप में सामने आया। सुल्तानों ने अपनी निर्माण गतिविधियों को मुख्य रूप से दिल्ली तक ही सीमित रखा। हालाँकि, उन्होंने उत्तर प्रदेश में भी मकबरों और मस्जिदों का निर्माण करावाया लेकिन, पिछली शताब्दियों कि तुलना में वह कम ही साबित हुआ। किन्तु, जौनपुर के सन्दर्भ में, शर्की शासकों का आगमन कला गतिविधियों में एक नव-जीवन की तरह आया। जौनपुर की मस्जिदें, हिंदू और मुस्लिम वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। जौनपुर की मस्जिदों में महिलाओं के लिए नमाज अदा करने की भी सुविधा देखने को मिलती है।
यद्यपि, भारत में मुस्लिम घुसपैठ 1000-1030 ईस्वी में ही शुरू हो गई थी पर उत्तर भारत पर मुस्लिम शासन 12 वीं शताब्दी के आखिरी दशक तक स्थापित हुआ, जब मुहम्मद गौरी ने अधिकांश उत्तर प्रदेश को कब्ज़े में ले लिया। सन् 1526 तक आते-आते – चंगेज खान और तैमूर (तामेरलेन) के वंशज – बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हरा दिया और इस तरह मुस्लिम राजवंशों में सबसे सफल वंश, मुगल साम्राज्य की नींव पड़ी, जिसका केंद्र एकबार फिर उत्तर प्रदेश बना। मुग़ल प्रभाव दो सौ से अधिक वर्षों तक कायम रहा। इस साम्राज्य का सबसे बड़ा विस्तार अकबर के शासनकाल (1556-1605 ई.) में हुआ, जब उसने आगरा के निकट एक भव्य नई राजधानी, फतेहपुर सीकरी का निर्माण करवाया। उसके पोते, शाहजहाँ ने अपने शासनकाल (1628-58 ई.) में आगरा शहर में दुनिया की सबसे बड़ी स्थापत्य उपलब्धियों में से एक, अपनी बेग़म कि याद में, ताजमहल बनवाया।
सही मायनों में मुग़ल काल स्थापत्य कला की दृष्टि में उत्तर प्रदेश के इतिहास में स्वर्ण काल साबित हुआ। मुग़ल साम्राज्य ने एक नई, मिश्रित संस्कृति के विकास को बढ़ावा दिया। अकबर, इसके सबसे बड़े प्रतिपादक, ने अपने दरबार में वास्तुकला, साहित्य, चित्रकला और संगीत में प्रमुख व्यक्तियों को नियुक्त किया, चाहे उनकी जाति या पंथ कुछ भी हो। यह एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण निर्णय था। इसी तरह ज़मीनी स्तर पर भी उस समय, हिंदू धर्म और इस्लाम के साथ-साथ, भारत की विभिन्न जातियों के बीच, एक समान आधार की तलाश करने वाले कई नए संप्रदाय उस अवधि के दौरान विकसित हुए। रामानंद ( 1400-70 ई.), जिनमें एक बड़ा नाम हैं, ने भक्ति संप्रदाय की स्थापना की। उनका दावा था कि मोक्ष किसी लिंग या जाति पर निर्भर नहीं करता है। इसी तरह कबीर (1440-1518 ई.) ने सभी धर्मों कि एकता पर दोहों के रूप में उपदेश दिया।
18वीं शताब्दी में, ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते वर्चस्व के साथ, मुगलों के पतन की शुरुआत हुई। लेकिन उन्होंने अपनी उस पूरी संस्कृति के केंद्र को, साम्प्रदायिक सद्भाव के माहौल में दिल्ली से लखनऊ स्थानांतरित कर दिया। जब अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ सन् 1857 में विद्रोह हुआ तब तत्कालीन मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की गिरफ़्तारी के साथ ही, अधिकारिक तौर पर मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया और उत्तरप्रदेश अंग्रेजों के अधीन आ गया।
Baten UP Ki Desk
Published : 26 December, 2022, 12:39 pm
Author Info : Baten UP Ki