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साहित्य की दुनिया का एक ऐसा शायर, जिसने सत्ता को खुलेआम ललकारा

ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें

मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते...

यह शेर उर्दू शायरी के उस अद्वितीय सफ़र की गवाही है, जहां शब्द न केवल विचारों को व्यक्त करते हैं, बल्कि आत्मनिर्भरता और विरोध की एक मजबूत आवाज़ भी बनते हैं। शायर का यह संदेश न केवल उनकी शायरी का जादू है, बल्कि एक बग़ावत का ऐलान भी, जो दमन और ज़बान पर नियंत्रण की सीमाओं को चुनौती देता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं पं. बृजनारायण चकबस्त की, जिनकी कविताओं ने सत्ता को खुली चुनौती दी और भारतीयों के दिलों में एक नया उत्साह भर दिया।

जिन पंक्तियों से  शुरूआत हुई है उनमें ओज है, एक वीरता है, जंग की ललकार का आह्वाहन है। इस शायरी के बहुत गहरे मायने हैं। हम पं. बृजनारायण चकबस्त की ऐसी ही कई और पंक्तियों के बार में चर्चा करेंगे लेकिन इस पहले हम उनके बगावती तेवर और उनकी जिंदगी के बारे में विस्तार से बताते हैं...

पं. चकबस्त का कश्मीरी मूल था, और उनका जन्म 19 जनवरी, 1882 को फैजाबाद में हुआ। उनके पिता पं. उदितनारायण, जो खुद कवि थे, एक डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे। लेकिन कम उम्र में ही चकबस्त की जिंदगी में एक मोड़ आया जब उनके पिता का निधन हो गया।"

"लखनऊ में अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल बिताने के बाद, चकबस्त ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की। जल्द ही वे लखनऊ के सफल वकीलों में गिने जाने लगे, लेकिन उनकी जीवन यात्रा सिर्फ वकालत तक सीमित नहीं रही।"

"एक प्रसिद्ध वकील होने के बावजूद, चकबस्त का दिल हमेशा साहित्य और स्वतंत्रता संग्राम में बसा था। वे समाज सुधार के आंदोलनों में भी सक्रिय रहे। उनका मानना था कि देश की स्वतंत्रता और समाज में इंसाफ का असल मतलब तभी समझा जा सकता था, जब हर नागरिक को समान अधिकार मिले।"

 

अब आते हैं उस बात पर जिसे हमने अधूरे में ही छोड़ दिया था।

आज से कई दशकों पहले, भारत के संघर्षमय दौर में एक महान शायर और वकील ने अपनी काव्यशक्ति और साहस से न सिर्फ उर्दू साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी काव्य रचनाओं में न केवल साहित्यिक गहराई थी, बल्कि उनमें एक देशभक्ति का जुनून भी था, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ देशवासियों के दिलों में उबाल लाता था।"

"यह वह दौर था जब भारत की स्वतंत्रता की लौ जल रही थी, और चकबस्त ने अपनी कविता से इस लौ को और प्रज्वलित किया। एक ऐसा वाकया है जब उन्होंने ब्रिटिश शासन को अपनी कविता के माध्यम से चुनौती दी थी, यह शब्द उन दिनों एक ज्वाला की तरह फैल गए थे:"

ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें

मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते

 

ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं

शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते

 

ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में

कोई सताए हमें हम सता नहीं सकते

 

कशिश वफ़ा की उन्हें खींच लाई आख़िर-कार

ये था रक़ीब को दा'वा वो आ नहीं सकते।।

 

"ये शब्द चकबस्त के साहस का प्रतीक थे। उन्होंने साफ तौर पर ब्रिटिश शासन को यह चुनौती दी कि वे उनकी आवाज़ को नहीं दबा सकते, क्योंकि उनके विचार, उनकी कविता कभी भी जंजीरों में नहीं बंध सकती।"

वकालत में सफलता के बावजूद, चकबस्त का मन कभी भी सिर्फ पेशेवर जीवन में नहीं बसा। उनका दिल स्वतंत्रता संग्राम और उर्दू साहित्य के गहरे अध्ययन में रमता था। उन्होंने स्वराज आंदोलन सहित अपने समय के कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। समाज सुधार के प्रति उनकी रुचि उनके साहित्य में भी दिखती है, जैसे कि जब कश्मीरी ब्राह्मणों के समुदाय में विधवा विवाह की स्वीकृति मिली, तो उन्होंने उसकी सराहना करते हुए अपनी रचना 'बर्के-इस्लाह' लिखी। यह उनके समाज सुधारक दृष्टिकोण और साहित्यिक योगदान का महत्वपूर्ण उदाहरण है।

गम नहीं दिल को यहां दीन की बरबादी का

बुत सलामत रहे इंसाफ की आजादी का।।

उनका मानना था कि किसी भी देशवासी को सच्चे इंसाफ और स्वतंत्रता का अनुभव तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि उनका देश स्वतंत्र न हो। इन महात्माओं का विश्वास था कि देश की आज़ादी और व्यक्तिगत अधिकारों का संगम ही वास्तविक स्वतंत्रता का परिचायक होता है। इस दृष्टिकोण को लेकर उन्होंने अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए और इसे अपने संकल्प में शामिल किया।

लब फिजूल है कांटों की फूल के बदले

 न लें बहिश्त, मिले होम रुल के बदले

इतना ही नहीं: चिराग कौम का रोशन है अर्श पर दिल के

 इसे हवा के फरिश्ते बुझा नहीं सकते।।

 

लखनऊ के ऐतिहासिक पलों में एक महत्वपूर्ण घटना कश्मीर के नवयुवकों की सभा का आठवां अधिवेशन था, जहां चकबस्त ने अपनी नज्म ‘दर्दे दिल’ पढ़ी, और नवयुवकों का दर्द उनकी आंखों में छलक आया। यह घटना लखनऊ के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में एक अहम मोड़ के रूप में दर्ज हुई। वहीं, 3 सितम्बर, 1911 को महामना मदनमोहन मालवीय ने हिंदू विश्वविद्यालय के लिए चंदा मांगने लखनऊ का दौरा किया, और इस अवसर पर चकबस्त की नज्म ‘कौमी मुसद्दस’ ने अधिवेशन को एक नया आयाम दिया। जब कांग्रेस के कई नेता पार्टी से अलग हुए, तो चकबस्त ने अपनी प्रसिद्ध नज्म ‘आंसुओं से अपने जो सींचा किये बागे वतन’ रची, जो देशभक्ति और अपार वेदना की गहरी भावना को व्यक्त करती है।

आंसुओं से अपने जो सींचा किये बागे वतन,

बेवफाई के उन्हें खिलअत अता होने को हैं।

मादरे नाशाद रोती है कोई सुनता नहीं,

दिल जिगर से भाई से भाई जुदा होने को हैं।।

 

चकबस्त, जिनकी काव्यकला और सामाजिक प्रतिबद्धता ने उन्हें भारतीय साहित्य में अमिट स्थान दिलाया, बहुत कम उम्र में हमसे बिछड़ गए। महज 44 वर्ष की आयु में 12 फरवरी, 1926 को उनका असमय निधन हो गया। उनकी मृत्यु एक अपूरणीय क्षति थी, क्योंकि उनका लेखन और विचारधारा आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। उनका समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ में संकलित हुआ, लेकिन उनकी जन्मभूमि फैजाबाद (अब अयोध्या) और उनके घर में उनके योगदान का कोई सही सम्मान नहीं हो सका। उनकी स्मृतियां अब केवल एक लाइब्रेरी तक सीमित हैं, जिसे मीर अनीस के साथ उनके नाम से जाना जाता है, लेकिन उस लाइब्रेरी की भी हालत दयनीय है। चकबस्त की धरोहर को संजोने की जरूरत आज भी महसूस की जाती है।

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