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भारतीय लोकतंत्र और संविधान की गहराई को समझने के लिए इसकी प्रस्तावना का महत्व बेमिसाल है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए प्रस्तावना से 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। न्यायालय ने संविधान के मूल सिद्धांतों को रेखांकित करते हुए साफ कर दिया कि ये शब्द केवल संविधान का हिस्सा भर नहीं, बल्कि इसकी आत्मा का प्रतीक हैं।
प्रस्तावना: संविधान की पहली झलक
भारतीय संविधान की प्रस्तावना महज एक औपचारिक उद्घोषणा नहीं है। यह भारतीय जनता के अधिकारों, स्वतंत्रता और न्याय का संकल्प है। इसे 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया गया और 42वें संशोधन के जरिए इसमें 'समाजवादी', 'पंथनिरपेक्ष', और 'अखंडता' जैसे शब्द जोड़े गए। यह प्रस्तावना न केवल भारत को एक "सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" घोषित करती है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के माध्यम से नागरिकों के लिए गरिमा और अखंडता सुनिश्चित करने का वादा भी करती है।
'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष': क्यों महत्वपूर्ण हैं ये शब्द?
क्या थी याचिका और क्या थे तर्क?
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 42वें संशोधन के जरिए इन शब्दों को जोड़ना संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ है। उनका कहना था कि ये शब्द संविधान सभा द्वारा अंगीकृत मूल प्रस्तावना में शामिल नहीं थे। अधिवक्ता विष्णुशंकर जैन ने याचिका में यह भी दलील दी कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समाजवाद शब्द को संविधान में शामिल करने का विरोध किया था, क्योंकि इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लग सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का विचार और फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि संविधान के मूल सिद्धांत समय के साथ प्रासंगिक बने रहेंगे। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने कहा, "समाजवाद और पंथनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं। इतने वर्षों बाद इन्हें चुनौती देना व्यर्थ है।" न्यायालय ने यह भी कहा कि समाजवाद का अर्थ केवल पश्चिमी विचारों तक सीमित नहीं है। यह आर्थिक समानता और अवसरों के समान वितरण का भी प्रतीक है। इसी तरह, पंथनिरपेक्षता का मतलब है कि राज्य धर्मनिरपेक्ष रहेगा और सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करेगा।
संविधान का स्थायित्व बनाम बदलाव की मांग
यह फैसला भारतीय संविधान की स्थिरता और लचीलापन दोनों को रेखांकित करता है। प्रस्तावना में संशोधन की संभावना को स्वीकार करते हुए अदालत ने कहा कि यह प्रक्रिया संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित नहीं कर सकती। याचिकाओं के खारिज होने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि संविधान में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों का होना केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों को जीवित रखने का माध्यम है।
प्रस्तावना को अक्षुण्ण बनाए रखने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला-
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल संविधान की प्रस्तावना को अक्षुण्ण बनाए रखने का है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के विविधतापूर्ण और समावेशी स्वरूप का प्रतीक भी है। यह फैसला यह भी याद दिलाता है कि संविधान में हर बदलाव केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारतीय समाज की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
Baten UP Ki Desk
Published : 25 November, 2024, 8:17 pm
Author Info : Baten UP Ki