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भारत की न्यायपालिका एक बार फिर चर्चाओं के केंद्र में है—और इस बार बहस का विषय है न्यायिक सक्रियता (judicial activism) बनाम न्यायिक अतिक्रमण (Judicial overreach)। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्देश में राज्यपालों द्वारा रोके गए विधेयकों पर निर्णय के लिए राष्ट्रपति को तीन महीने की समयसीमा तय कर दी है। इस निर्देश का मकसद जहां विधायी गतिरोध को दूर करना है, वहीं इसने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की संवैधानिक रेखाओं पर नई बहस छेड़ दी है।
जब न्यायपालिका पार कर जाए मर्यादा?
भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण स्पष्ट है-विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती है, और न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है। लेकिन हालिया निर्देश पर आलोचकों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के विवेकाधिकार में हस्तक्षेप कर, कार्यपालिका के क्षेत्र में कदम रख दिया है। क्या यह संवैधानिक संतुलन का उल्लंघन है या लोकतांत्रिक जवाबदेही की दिशा में आवश्यक हस्तक्षेप? यही सवाल अब देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का सारांश
2024 के इस फैसले में अदालत ने कहा:
राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।
यदि विलंब होता है, तो उसका कारण रिकॉर्ड में दर्ज करना अनिवार्य होगा।
दोबारा पारित विधेयकों को फिर से सुरक्षित रखना अमान्य माना जाएगा।
चिंता की वजहें: क्या यह न्यायिक अतिक्रमण है?
कई संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि:
राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है, जिनके विवेकाधिकार में न्यायिक समयसीमा बाधा बन सकती है।
संवैधानिक संतुलन और संस्थागत मर्यादा पर यह निर्णय असर डाल सकता है।
न्यायपालिका यदि नीति निर्माण या कार्यपालिका के निर्णयों में आदेश देने लगे, तो शक्तियों का संतुलन बिगड़ सकता है।
यह पहली बार नहीं...
यह पहला मामला नहीं है जब न्यायपालिका के निर्णयों को अतिक्रमण माना गया है:
श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2018): सिनेमाघरों में राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिया गया।
NJAC केस (2015): न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका खत्म कर दी गई।
हाईवे शराब बैन (2016): राज्य राजस्व पर बड़ा असर, कमजोर कानूनी आधार।
जॉली एलएलबी II केस (2021): सेंसर बोर्ड के ऊपर न्यायपालिका की समिति बिठाई गई।
अनुच्छेद 142: न्याय या असीम शक्ति?
अनुच्छेद 142 का प्रयोग "पूर्ण न्याय" के लिए होता है, लेकिन बार-बार इसका उपयोग करने से यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या इससे न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र को छीन रही है? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर कर रहा है?
संघवाद की परीक्षा
राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए रोकना संघीय व्यवस्था को कमजोर करता है, लेकिन इसका समाधान क्या न्यायिक हस्तक्षेप ही होना चाहिए? कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश राज्यों के हित में है, लेकिन कार्यपालिका की विवेकशीलता पर अंकुश लगाकर क्या हम संविधान की आत्मा से दूर हो रहे हैं?
क्या चाहिए – संयम या साहस?
न्यायिक संयम ही इस बहस का केंद्रबिंदु है। जब न्यायपालिका नीति-निर्धारण से दूर रहते हुए संवैधानिक सीमाओं में काम करती है, तभी लोकतंत्र सशक्त होता है। अयोध्या मामला (2019) और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन केस (2011) जैसे उदाहरण दर्शाते हैं कि न्यायिक संयम कैसे न्यायपालिका की विश्वसनीयता और लोकतांत्रिक मर्यादा को बनाए रखते हैं।
क्या जरूरी है न्यायपालिका के फैसलों की वैधता पर मंथन?
आज जब भारत एक संवेदनशील लोकतांत्रिक मोड़ पर खड़ा है, यह आवश्यक है कि न्यायपालिका संविधान की रक्षा करते हुए संवैधानिक संतुलन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का सम्मान करे। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश चाहे जितना भी सदाशयता से प्रेरित हो, यह सवाल जरूर उठाता है—क्या न्याय की सक्रियता कभी-कभी अतिक्रमण बन जाती है?
By Rishika Tiwari
Baten UP Ki Desk
Published : 21 April, 2025, 2:10 pm
Author Info : Baten UP Ki