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विकराल रूप लेता जा रहा है धरती पर जलवायु संकट! निर्णायक कदमों की है सख्त जरूरत...

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बढ़ते तापमान, बार-बार की प्राकृतिक आपदाएं और अप्रत्याशित मौसम घटनाएं—ये सभी संकेतक हैं कि धरती पर जलवायु संकट एक विकराल रूप लेता जा रहा है। भारत में रिकॉर्ड गर्म अक्टूबर, स्पेन में अचानक आई भीषण बाढ़, फ्लोरिडा में विनाशकारी तूफान, और दक्षिण अमेरिका के जंगलों में फैली आग, सभी इस खतरे को और स्पष्ट कर रहे हैं। इन हालातों में, दुनिया की नजरें अब संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन कॉप-29 पर टिकी हैं, जिसका आयोजन 11 नवंबर से अजरबैजान की राजधानी बाकू में शुरू हो चुका है।

क्यों है कॉप-29 इतना महत्वपूर्ण?

कॉप-29 का उद्देश्य न केवल जलवायु संकट पर चर्चा करना है, बल्कि कारगर समाधान पर भी सहमति बनाना है। वर्तमान में, ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन पृथ्वी की सीमाओं को पार कर रहा है। इससे निपटने के लिए सम्मेलन में इस बार खासतौर पर जीवाश्म ईंधनों के विकल्प तलाशने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता जुटाने पर जोर दिया जा रहा है। कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष बन सकता है। यह उस ऐतिहासिक वर्ष को पीछे छोड़ देगा, जब 2023 में तापमान औद्योगिक युग से पहले की तुलना में 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था। विशेषज्ञों का मानना है कि 2024 में तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर सकता है, जो वैश्विक तापमान के बढ़ने में नए मील के पत्थर की तरह है।

जलवायु परिवर्तन से भारत पर बढ़ता खतरा-

जलवायु संकट का प्रभाव भारत पर भी गहरा हो रहा है। भारतीय मौसम विभाग (IMD) ने हाल ही में पुष्टि की है कि 1901 के बाद से, 2024 में अक्टूबर का महीना सबसे गर्म रहा। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 के पहले नौ महीनों में भारत ने 93% दिनों में चरम मौसमी घटनाओं का सामना किया। इसमें गर्मी और ठंडी हवाओं, चक्रवात, भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाएं शामिल हैं, जिनमें 3,238 लोगों की मौत हुई, और 32 लाख हेक्टेयर फसलें प्रभावित हुईं।

क्या है संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन?

संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन या कॉप बैठकें एक ऐसा मंच हैं जहां दुनिया के लगभग सभी देश जलवायु संकट से निपटने के लिए मिलकर कदम उठाने पर सहमति बनाते हैं। यह मंच न केवल सरकारी प्रतिनिधियों, बल्कि व्यापारिक नेताओं, वैज्ञानिकों, और विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी अपनी चिंताएं और सुझाव साझा करने का अवसर देता है। पेरिस समझौते के तहत, 2015 में विश्व के नेताओं ने वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को 2 डिग्री से कम रखने और इसे 1.5 डिग्री के अंदर सीमित करने का वादा किया था। कॉप-29 में इसका पालन करने और इसे और सख्त करने के प्रयासों पर जोर दिया जा रहा है।

जलवायु वित्त और 'न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल'-

बकू में इस बार चर्चा का केंद्र जलवायु वित्त का मुद्दा है। विकसित देशों ने पहले विकासशील देशों की मदद के लिए 100 अरब डॉलर का वादा किया था, लेकिन इस वित्तीय सहायता की आपूर्ति में कई चुनौतियां रही हैं। इस बार, कॉप-29 में 'न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल' (एनसीक्यूजी) पर सहमति बनने की उम्मीद है, जो पिछले वादे की जगह लेगा और जलवायु संकट से निपटने के लिए अधिक प्रभावी वित्तीय सहायता सुनिश्चित करेगा।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर वैश्विक जीडीपी का मात्र 1% जलवायु संकट से निपटने के लिए निवेश किया जाए, तो यह विकासशील देशों की जलवायु आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। सम्मेलन का उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से हुए नुकसान की भरपाई के लिए वित्तीय सहायता जुटाना है।

भारत और जलवायु नेतृत्व की चुनौतियां-

भारत जैसे तेजी से विकासशील देश के लिए जलवायु परिवर्तन का मुद्दा बहुत चुनौतीपूर्ण है। भारत ने ऊर्जा की अपनी मांगों को पूरा करने के लिए अक्षय ऊर्जा का विस्तार किया है, पर जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता अब भी अधिक है। इसके बावजूद, भारत ने अक्षय ऊर्जा और हाइड्रोजन जैसे साफ-सुथरे ऊर्जा स्रोतों पर बड़े निवेश की योजना बनाई है। भारत ने 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया है, और यह कॉप-29 में भी अपने इन लक्ष्यों पर प्रगति साझा करेगा।

चरम मौसमी घटनाएं और उनका आर्थिक प्रभाव-

चरम मौसमी घटनाओं का प्रभाव केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं है, बल्कि आर्थिक तौर पर भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में फसलें लगातार प्रभावित हो रही हैं, जिससे खाद्य संकट की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। जलवायु संकट से प्रेरित घटनाएं न केवल आर्थिक अस्थिरता, बल्कि सामाजिक विषमताओं को भी बढ़ा रही हैं। इस संदर्भ में, कॉप-29 जैसे मंचों पर किए गए निर्णय आने वाले दशकों में विश्व की स्थिरता पर असर डालेंगे।

वैश्विक तापमान नियंत्रण का एक नया अध्याय-

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे में सुधार और कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर ध्यान केंद्रित करते हुए, कॉप-29 में वैश्विक तापमान नियंत्रण के एक नए अध्याय की नींव रखी जा रही है। पेरिस समझौते के तहत, हर पांच वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित जलवायु योगदान (एनडीसी) में नए लक्ष्य जोड़ने का प्रावधान है, ताकि विश्व को जलवायु संकट की ओर बढ़ने से रोका जा सके। अक्षय ऊर्जा, स्वच्छ तकनीकों और ग्रीन फंड्स का संयोजन इस संकट को कम करने का एक प्रभावी उपाय हो सकता है।

जलवायु संकट की विकरालता-

जलवायु संकट की विकरालता को देखते हुए अब यह समय की मांग है कि जलवायु परिवर्तन पर निर्णायक कार्रवाई की जाए। कॉप-29 में किए गए निर्णय और उनके प्रति देशों की प्रतिबद्धता ही हमें एक सुरक्षित और स्थिर भविष्य की ओर ले जा सकती है। यह सम्मेलन न केवल एक मंच है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग का एक निर्णायक क्षण है, जहां मानवता को सामूहिक रूप से इस चुनौती का सामना करने के लिए तत्पर रहना होगा।

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