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क्या अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों के खिलाफ है?

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भारत का संविधान अपने अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार देता है। इस अनुच्छेद का मुख्य उद्देश्य यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी सांस्कृतिक और शैक्षिक पहचान को संरक्षित रखते हुए स्वतंत्र रूप से प्रगति कर सकें। यह अधिकार अल्पसंख्यकों को उनकी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का एक संवैधानिक सुरक्षा कवच प्रदान करता है, लेकिन समय-समय पर इसके कानूनी और संवैधानिक पहलुओं पर बहस भी होती रही है।

अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिलने की प्रक्रिया-

किसी भी संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा तभी मिल सकता है जब वह संस्थान किसी अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया हो और उसका प्रबंधन उसी समुदाय द्वारा किया जा रहा हो। अदालतें यह भी सुनिश्चित करती हैं कि उस संस्थान का उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदाय की शैक्षिक और सामाजिक उन्नति में सहायक हो। लेकिन इस प्रक्रिया में एक जटिलता यह है कि अगर किसी संस्थान की स्थापना सरकार द्वारा की गई हो, तो क्या वह अल्पसंख्यक दर्जा पा सकता है? यह प्रश्न अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के संदर्भ में विशेष रूप से उभरकर सामने आया।

AMU का अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद-

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 24 मई 1920 को हुई थी, लेकिन इसका इतिहास 1875 से शुरू होता है, जब सर सैयद अहमद खान ने इसे एक कॉलेज के रूप में शुरू किया था। उनका उद्देश्य मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करना था, और बाद में यही कॉलेज 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बना। यह विश्वविद्यालय आजादी के बाद देश के चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है।

1967 में एक महत्वपूर्ण मोड़-

1967 में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 'अजीज बाशा बनाम भारत सरकार' मामले में कहा कि AMU एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं मिल सकता। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस आधार पर था कि AMU की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के तहत हुई है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित नहीं माना जा सकता।

2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती

इसके बाद 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती देते हुए 1981 के संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया। केंद्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन 2016 में केंद्र सरकार ने एक नया रुख अपनाते हुए कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान की अवधारणा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के सिद्धांतों के खिलाफ है। मामला सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया गया।

2024 का ऐतिहासिक फैसला-

2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। सात जजों की बेंच ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि किसी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा केवल इसलिए खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी स्थापना राज्य ने की थी। बेंच ने कहा कि यह देखना आवश्यक है कि संस्थान की स्थापना में किसका विचार और उद्देश्य था। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि उस संस्थान की स्थापना किसी अल्पसंख्यक समुदाय के उद्देश्य से हुई थी, तो वह अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त कर सकता है। इस फैसले ने 1967 के अजीज बाशा मामले में दिए गए निर्णय को उलट दिया। अब इस मामले को सुप्रीम कोर्ट की एक नियमित बेंच के पास भेजा गया है, जो यह तय करेगी कि AMU को अल्पसंख्यक दर्जा मिलना चाहिए या नहीं।

अनुच्छेद 15(1) की भूमिका और अल्पसंख्यक दर्जा-

अनुच्छेद 15(1) में यह प्रावधान है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर एक अन्य बहस यह है कि क्या इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना अनुच्छेद 15(1) के खिलाफ है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि अल्पसंख्यक संस्थानों को स्थापित करना और उनका प्रबंधन करना संविधान के तहत मान्य है, बशर्ते वे राष्ट्रीय हित के खिलाफ न हों।

इस मामले का अन्य संस्थानों पर क्या पड़ेगा प्रभाव ?

यह मामला केवल एक संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों, उनके शैक्षिक संस्थानों की स्वतंत्रता और उनकी सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण से भी जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद यह देखने वाली बात होगी कि AMU को अल्पसंख्यक दर्जा मिलेगा या नहीं, और इस मामले का अन्य संस्थानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

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