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6.7 लाख टीबी केस: आखिर उत्तर प्रदेश ही क्यों है नंबर 1?

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आज वर्ल्ड हेल्थ डे है — वो दिन जब हम स्वास्थ्य के मौजूदा हालात पर नज़र डालते हैं, समस्याओं को पहचानते हैं और समाधान की दिशा में सोचते हैं। लेकिन इसी मौके पर सामने आया है एक चिंताजनक आंकड़ा: उत्तर प्रदेश में ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) के केस लगातार बढ़ रहे हैं। 2023 में जहां प्रदेश में 6.2 लाख से ज़्यादा टीबी केस दर्ज किए गए थे, वहीं 2024 में यह संख्या बढ़कर 6.7 लाख से अधिक हो गई है। यानी दो साल से लगातार यूपी इस बीमारी के मामलों में देश में सबसे ऊपर है।

ट्यूबरकुलोसिस: एक खामोश कातिल

टीबी, जिसे हिंदी में क्षय रोग कहा जाता है, एक संक्रामक बीमारी है जो फेफड़ों पर असर डालती है। यह माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक बैक्टीरिया से होती है, जो हवा के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे में फैलती है, खासकर खांसी या छींक के जरिए। हर साल 24 मार्च को वर्ल्ड टीबी डे मनाया जाता है — उसी दिन 1882 में डॉ. रॉबर्ट कोच ने इस जानलेवा बैक्टीरिया की खोज की थी, जिससे इसके इलाज का रास्ता खुला।

तो यूपी में ही क्यों सबसे ज़्यादा केस?

विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़ी वजहें हैं:

🔹 अत्यधिक जनसंख्या घनत्व – भीड़भाड़ वाले इलाके संक्रमण को बढ़ावा देते हैं।
🔹 गरीबी और कुपोषण – कमजोर इम्यून सिस्टम वाले लोग जल्दी इसकी चपेट में आते हैं।
🔹 झुग्गी-बस्तियाँ और खराब वेंटिलेशन – साफ़-सफाई की कमी टीबी के लिए उपयुक्त माहौल बनाती है।
🔹 प्रदूषण और धूम्रपान – फेफड़ों की सेहत पहले से ही खराब होती है।
🔹 जागरूकता की कमी – लोग लक्षण पहचानने और समय पर इलाज कराने में चूक जाते हैं।
🔹 प्रवासी मजदूरों की चुनौती – अधूरा इलाज संक्रमण के प्रसार को बढ़ाता है।
🔹 बढ़ी हुई रिपोर्टिंग – निगरानी और ट्रैकिंग सिस्टम बेहतर होने से अब ज़्यादा केस सामने आ रहे हैं — जो कि सकारात्मक भी है।

सरकारी प्रयास: इच्छाशक्ति है, लेकिन चुनौतियाँ भी

भारत ने 2030 की बजाय 2025 तक टीबी-मुक्त देश बनने का लक्ष्य रखा है। 2018 के 'Delhi End TB Summit' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह संकल्प लिया था।

उत्तर प्रदेश सरकार भी सक्रिय है:

  • हर जिले में टीबी नियंत्रण इकाइयाँ बनाई गई हैं।

  • ‘निक्षय पोषण योजना’ के तहत मरीजों को पौष्टिक आहार के लिए हर माह ₹1000 की मदद दी जाती है।

  • डिजिटल प्लेटफॉर्म से मरीजों की सीधी निगरानी हो रही है।

  • ‘निक्षय मित्र’ अभियान के ज़रिए समाज के लोग मरीजों को 'गोद' लेकर आर्थिक और भावनात्मक मदद दे रहे हैं।

...लेकिन क्या यह काफी है?

बढ़ते केस बताते हैं कि प्रयास जारी हैं, पर प्रभाव अभी सीमित है। एक तरफ़ सरकारी योजनाएँ चल रही हैं, दूसरी तरफ़ हर दिन हजारों जिंदगियाँ इस बीमारी से लड़ रही हैं। अगर 2025 का लक्ष्य हासिल करना है तो जागरूकता, समय पर जांच और इलाज, और सामाजिक सहयोग को और मजबूत करना होगा। टीबी न केवल एक मेडिकल चुनौती है, बल्कि सामाजिक न्याय, पोषण और जीवन-स्तर से जुड़ा मसला भी है।

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