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"सुपरफूड" कहलाए जाने वाले मिलेट्स — यानी ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुट्टू, फॉक्सटेल जैसे मोटे अनाज , आजकल चर्चा में तो हैं, लेकिन इन्हें उगाने वाले किसानों की जिंदगी में वैसी रौशनी अब तक नहीं आई। भारत सरकार ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष घोषित किया, मिलेट्स को “श्री अन्न” का दर्जा दिया और इन्हें मिड-डे मील और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में शामिल करने की पहल की। बावजूद इसके, जमीन पर किसानों की चुनौतियाँ जस की तस बनी हुई हैं।
खेती कम, उत्पादन बढ़ा — लेकिन किस कीमत पर?
पिछले 50 वर्षों में भारत में मिलेट्स की खेती का क्षेत्रफल 56% घट गया है, फिर भी उत्पादन 11.3 मिलियन टन से बढ़कर 16.9 मिलियन टन हो गया है। इसका श्रेय नई तकनीकों और उन्नत बीजों को जाता है। हालांकि गेहूं और धान की तुलना में मिलेट्स की पैदावार अब भी कम है, और इससे किसानों की आय पर असर पड़ा है। कर्नाटक, जो कभी मिलेट्स का गढ़ माना जाता था, वहाँ 2017-18 से 2022-23 के बीच इनकी खेती का क्षेत्रफल 21 लाख हेक्टेयर से घटकर 16 लाख हेक्टेयर रह गया है। उत्पादन में भी गिरावट आई है — 32 लाख टन से घटकर 21 लाख टन।
किसानों की जमीनी परेशानियाँ
शिवानी उनकार, जो ‘Great State Aleworks’ की मिलेट बीयर प्रोजेक्ट से जुड़ी हैं, ने महाराष्ट्र के किसानों से बातचीत में पाया कि बारिश के अस्थिर पैटर्न, खेतों में मज़दूरों की कमी और फसल की प्रोसेसिंग में आने वाली दिक्कतें किसानों के लिए बड़ी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। कुछ मिलेट्स जैसे फिंगर मिलेट, बाजरा और ज्वार 'नैक्ड ग्रेन्स' होते हैं — जिनमें छिलका नहीं होता, लेकिन कोदो, प्रोसों, फॉक्सटेल जैसे अनाजों में छिलका होता है, जिसे हटाने के लिए विशेष मशीनों और श्रमिकों की ज़रूरत होती है। ये संसाधन छोटे किसानों के पास अक्सर नहीं होते।
बाज़ार की पहुँच — एक और बड़ी रुकावट
ग्रामीण इलाकों के किसान अपनी उपज बेचने के लिए शहरों तक जाते हैं, क्योंकि पास में कोई अच्छी मंडी नहीं होती। वहां भी फसल की सही कीमत नहीं मिलती। सिर्फ तीन अनाजों — ज्वार, बाजरा और रागी — को ही MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) मिलता है, बाकी अनाजों के लिए कोई ठोस समर्थन नीति नहीं है।
मिलेट्स और जलवायु परिवर्तन
एक ओर जहां मिलेट्स को सूखे में टिकाऊ माना जाता है, वहीं जलवायु परिवर्तन की कुछ स्थितियाँ इन्हें भी नुकसान पहुँचा रही हैं। Our World in Data की रिपोर्ट के अनुसार, CO2 की मात्रा बढ़ने से गेहूं और धान को लाभ होता है, लेकिन मिलेट्स पर इसका सकारात्मक असर नहीं होता। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया कि हर 1°C तापमान बढ़ने पर मिलेट्स की पैदावार में 3.06% की गिरावट आती है।
प्रोसेसिंग और उपभोक्ता तक की दूरी
मिलेट्स की प्रोसेसिंग — यानी सफाई, छिलका हटाना, पैकेजिंग — के लिए जो मशीनें चाहिए, वे या तो उपलब्ध नहीं हैं, या फिर महंगी और धीमी हैं। वहीं उपभोक्ताओं तक ये अनाज पहुँच ही नहीं पाते। चावल और गेहूं, जो राशन दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं, उनकी तुलना में मिलेट्स महंगे और कम सुविधाजनक लगते हैं। लोगों को मिलेट्स पकाने के तरीके नहीं पता, और न ही इनके फायदों की जानकारी स्कूलों, TV या सोशल मीडिया पर ठीक से पहुँच रही है। नतीजा — किसान को फसल की सही कीमत नहीं मिलती, और उपभोक्ता एक बेहतर विकल्प से वंचित रह जाते हैं।
क्या है आगे का रास्ता?
सरकार ने शुरुआत ज़रूर की है — MSP बढ़ाया गया, स्कूलों के मिड-डे मील में इन्हें शामिल किया गया, PDS में प्रयोग शुरू हुआ। लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब—
सभी मिलेट्स को MSP का दायरा मिलेगा
प्रोसेसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर गाँवों तक पहुँचे
मार्केटिंग और पब्लिक अवेयरनेस में बड़ा निवेश हो
और किसानों को उत्पादन से लेकर बिक्री तक हर कदम पर सहयोग मिले
मिलेट्स सिर्फ पोषण का ही नहीं, बल्कि जलवायु संकट से लड़ने का भी एक अहम हथियार बन सकते हैं — बशर्ते इनकी खेती करने वालों को वह मान, मूल्य और सहयोग मिले, जिसके वे हकदार हैं। अगर आप चाहें, मैं इस आर्टिकल को हिंदी और इंग्लिश दोनों में सोशल मीडिया या वेबसाइट के लिए शॉर्ट फॉर्म में भी तैयार कर सकता हूँ।
Baten UP Ki Desk
Published : 7 April, 2025, 7:29 pm
Author Info : Baten UP Ki