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गज़ल के बादशाह की प्रेरणादायक ज़िंदगी...

11 साल का एक लड़का खचा-खच भरी एक महफ़िल में दाख़िल होता है, जहां ग़ज़ल, शायरी और नज़्म का रंग जमा होता है। वह चुपचाप सुनता है, माहौल को महसूस करता है, और फिर अचानक खुद अपनी लिखी ग़ज़ल सुनाता है –

 

"इतना तो ज़िंदगी में किसी के खलल पड़े,

हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।"

 

महफ़िल सन्न हो जाती है। हर कोई हैरान, हर किसी के जहन में एक ही सवाल – क्या ये मासूम सा बच्चा वाकई इतना गहरा लिख सकता है? कानाफूसियां होने लगती हैं आखिरकार, जब घरवाले इस बात की गवाही देते हैं कि ये गज़ल इसी लड़के ने लिखी है। तब जाकर लोगों को भरोसा होता है। लेकिन किसे पता था कि यह हुनरमंद लड़का कोई और नहीं, बल्कि ग़ज़ल का आने वाला सितारा है। 

 

उस बच्चे का नाम सैयद अतहर हुसैन रिज़वी था, लेकिन दुनिया उन्हें कैफ़ी आज़मी के नाम से जानती है—उनकी कलम ने कभी रूमानियत से लबरेज़ इश्क़ को बयां किया, तो कभी मजदूरों और बेसहारों की चीखों को आवाज़ दी। उनके अल्फ़ाज़ में कभी क्रांति की लपटें थीं, तो कभी मोहब्बत की नज़ाकत। कैफ़ी का व्यक्तित्व किसी एक रंग में सीमित नहीं रहा; वो कवि भी थे, फ़कीर भी, और क्रांतिकारी भी। जब वतन की मुहब्बत को लफ़्ज़ों में पिरोया, तो "कर चले हम फ़िदा, जान-ओ-तन साथियों" जैसा अमर गीत जन्मा। इश्क़ की बात आई, तो "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं" में मोहब्बत का दर्द छलक उठा। और जब दिल के गहरे ज़ख्मों को शब्द दिया, तो "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो" जैसी नज़्म रच दी। 

कैफ़ी आज़मी का जन्म 14 जनवरी 1918 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के मिजवां गांव में हुआ। उनका परिवार ज़मींदार था, और घर का माहौल शेर-ओ-शायरी और अदब से सराबोर था। युवा कैफ़ी के भीतर का भी शायर धीरे-धीरे जागने लगा। उनकी पहली कोशिशों में से एक थी:

 

"मेरे दिल में तू ही तू है, दिल की दवा क्या करूं,

दिल भी तू है, जां भी तू है, तुझपे फ़िदा क्या करूं।"

 

"हुस्न और इश्क़, दोनों को रुस्वा करे वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं"—कैफ़ी आज़मी की ये पंक्तियां उनके बागी मिज़ाज और क्रांतिकारी सोच का आईना थीं। लखनऊ से निकलकर उन्होंने कानपुर का रुख किया, जहां मजदूरों का आंदोलन उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। यहीं उनकी मुलाकात मार्क्सवादी विचारधारा और साहित्य से हुई, जिसने उनके जीवन और लेखनी को नया रंग दिया।

 

कुछ समय बाद दोस्तों के कहने पर कैफ़ी मुंबई चले गए। वहां उन्होंने ट्रेड यूनियन मजदूरों के साथ काम किया और उनकी तकलीफों को अपनी नज़्मों में ढाला। इसी दौर में उन्होंने 'इष्टा' नाट्य संगठन की नींव रखी। उनकी लेखनी ने आवाज़ दी उस इंकलाब को, जिसका ख्वाब उन्होंने लिखा था:

 

"कोई तो हाथ बढ़ाए, कोई तो ज़िम्मा ले,

उस इंकलाब का, जो आज तक हुआ ही नहीं।"

 

1951 में कैफ़ी आज़मी ने फ़िल्म 'बुज़दिल' के गीत 'रोते-रोते बदल गई रात' से फ़िल्मी सफर शुरू किया। फिर 'कागज के फूल', 'हक़ीकत', 'आख़िरी खत' और 'हीर रांझा' जैसे यादगार गीत रचे। उनकी कविता 'आवारा सिज्दे' ने साहित्य अकादमी पुरस्कार दिलाया, जबकि '7 हिंदुस्तानी' पर उन्हें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। 'गरम हवा' के संवादों ने फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड जीता। पद्मश्री और साहित्य अकादमी फेलोशिप जैसे सम्मानों ने उनके योगदान को अमर कर दिया।

 

कहते हैं, कैफ़ी आज़मी को सुनना दिल हारने जैसा था। इसका सबसे खूबसूरत किस्सा उनकी शादी है। हैदराबाद के एक कार्यक्रम में कैफ़ी अपनी नज़्म "औरत" सुना रहे थे। वही पल था, जब शौकत जो आगे चलकर उनकी वाइफ बनीं को उनकी शायरी नहीं, बल्कि पूरी शख़्सियत से मोहब्बत हो गई। निदा फ़ाज़ली ने इस वाकये को बयां करते हुए कहा, "कैफ़ी को सुनना ही उन्हें चाहने के लिए काफी था।"

 

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी ही नहीं

तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।।

 

इस नज़्म में जो 'उठ' शब्द है ये शौकत को चुभ गया। वे नज़्म खत्म होने से पहले ही वहां से उठकर जाने लगीं। घर पहुंचकर शौकत इस नज़्म और कैफ़ी की शख़्सियत के बारे में घंटों सोचती रहीं। उन्होंने आखिरकार एक बड़ा फैसला लिया—कैफ़ी से शादी करने का। इस फैसले के लिए उन्हें अपनी सगाई तोड़नी पड़ी और परिवार के विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन शौकत ने दिल की सुनी और एक ऐसे इंसान को चुना, जिसकी शायरी में इश्क़, क्रांति और इंसानियत के रंग बिखरे हुए थे। 

 

साल 2002 में, कैफ़ी आज़मी अपनी नज़्मों और गीतों से दिलों पर राज करते हुए इस दुनिया से रुख़सत हो गए। लेकिन उनकी रचनाएं हर दौर में हमें इंसानियत, इश्क़ और इंसाफ़ का पैगाम देती रहेंगी। 

 

"वक़्त से लड़कर जो अपना हुनर छोड़ जाते हैं,

उनका नाम सदियों तक ज़माने गुनगुनाते हैं।"

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