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रघुपति सहाय से ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ तक: जानिए उर्दू शायरी की एक अद्वितीय यात्रा!

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आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में फ़िराक़

जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए...

यह शेर उर्दू अदब के बड़े मशहूर शायर की कलम से निकला एक अनमोल नगीना है। इस एक पंक्ति में एक गहरा राज छुपा है। जिस शायर ने इस शेर को लिखा है, उसके अशआर में मोहब्बत, जुदाई, और ज़िंदगी के तल्ख़ अनुभवों का ऐसा रंग मिलता है, जो सीधे दिल को छू जाता है। उर्दू की अदबी दुनिया की इस अज़ीम शख्सियत का नाम फिराक़ गोरखपुरी है।  

जिस शेर से मैने शुरूआत की, उसके पीछे एक दिलचस्प किस्सा है। लेकिन उस किस्से पर बाद में आते हैं पहले फिराक गोरखपुरी को तफसील से जानते हैं...

रघुपति सहाय, जिन्हें दुनिया फिराक गोरखपुरी के नाम से जानती है, 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में जन्मे एक अद्वितीय शायर और विद्वान थे। उर्दू शायरी के बेमिसाल रचनाकार फिराक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। अपने अंदाज में उन्होंने कहा था, "भारत में सही अंग्रेजी जानने वाले सिर्फ ढाई लोग हैंमैं, डॉ. राधाकृष्णन, और आधे नेहरू।"

स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अलग छवि बनाने वाले फिराक गोरखपुरी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अनूठी छवि बनाने वाले फिराक गोरखपुरी केवल कवि ही नहीं, एक साहसी क्रांतिकारी भी थे। सिविल सर्विस में चयनित होकर डिप्टी कलेक्टर बनने का सुनहरा अवसर छोड़, उन्होंने गांधीजी के आदर्शों से प्रेरित होकर असहयोग आंदोलन का दामन थामा। पंडित नेहरू के बुलावे पर कांग्रेस से जुड़े, पर स्वतंत्रता की राह में कोई पद या वेतन उन्हें रोक न सका। फिराक की कहानी संकल्प और त्याग की अद्वितीय मिसाल है।

चुनाव लड़े तो जमानत जब्त हो गई

फिराक गोरखपुरी नेहरू और कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं के विश्वासपात्र थे, लेकिन राजनीति को कभी अपनी मंजिल नहीं बनाया। आजादी से पहले कांग्रेस के लिए काम करने के बावजूद, देश के पहले आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ किसान मजदूर प्रजा पार्टी से किस्मत आजमाई। गोरखपुर में उनका मुकाबला महंत दिग्विजय नाथ और कांग्रेस के सिंहासन सिंह से था। चुनाव में सिर्फ 9% वोट पाकर उनकी जमानत जब्त हो गई। हार का गम और चुनाव लड़ने का पछतावा उन्हें जिंदगीभर सालता रहा, जिसके लिए वे प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना को दोषी मानते थे।

भरी मंच पर पी शराब

अब आते हैं उस किस्से पर जिसकी चर्चा मैने शुरूआत में की थी। दरअसल हुआ यूं कि एक चुनावी सभा के दौरान एक बार महंत दिग्विजयनाथ ने फिराक गोरखपुरी पर शराब पीने का आरोप लगा दिया, जिसके बाद फिराक गोरखपुरी ने उसी मैदान पर अपनी सभा की और मंच पर ही शराब की बोतल खोलकर दो तीन घूंट शराब पी. इसके पीछे फिराक गोरखपुरी ने अपना तर्क देते हुए कहा कि सब तो बंद कमरे में शराब पीते हैं, मैं तो खुलेआम पीता हूं.

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में फ़िराक़

जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए’...

 

गंगा-जमुनी तहजीब की सच्ची तस्वीर-

फ़िराक़ गोरखपुरी की शायरी गंगा-जमुनी तहजीब की सच्ची तस्वीर है। उनकी रचनाएँ केवल इस तहजीब को व्यक्त नहीं करतीं, बल्कि हजारों साल की सांस्कृतिक विरासत को आवाज देती हैं। फ़िराक़ ने विविधता में एकता की गहरी जड़ों को अपनी शायरी में उकेरा, जो उन्हें अन्य शायरों से अलग और विशेष बनाती है।

 

सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़

क़ाफ़िले बस्ते गए हिंदोस्तां बनता गया….

ज़िदादिल और हाज़िरजवाब-

फ़िराक़ गोरखपुरी की शख्सियत न केवल उनकी शायरी, बल्कि उनकी जिंदादिली और बेबाक़ी के लिए भी मशहूर थी। निदा फाजली ने एक दिलचस्प किस्सा साझा किया, जिसमें कलकत्ता के एक मुशायरे में एक नौजवान शायर ने उनकी नकल की। टोके जाने पर उस शायर ने कहा, "हो सकता है विचार टकरा गए हों," तो फ़िराक़ साहब ने हाज़िरजवाबी से जवाब दिया, "साइकिल को मोटर से टकराते सुना था, लेकिन साइकिल हवाई जहाज से भी टकरा सकती है, ये पहली बार सुन रहा हूं!"

छिड़ गए साज़े-इश्क़ के गाने

 खुल गए ज़िंदगी के मयख़ाने।

हासिले-हुस्नो-इश्क़ बस इतना

आदमी आदमी को पहचाने।।

 

शादी में मिला धोखा-

फ़िराक गोरखपुरी की ज़िंदगी में एक गहरे दुख का समंदर छुपा था। 1914 में एक साज़िश के तहत उनकी शादी एक अनपढ़ और कुरूप लड़की से कर दी गई, जो उनके परिवार के करीबी द्वारा तय की गई थी। फिराक, जो साहित्य, दर्शन और सुंदरता से प्रेम करते थे, इस धोखे से बेहद निराश हुए। उनका वैवाहिक जीवन प्रेमहीन था, और हालांकि बच्चों की प्राप्ति हुई, फिराक खुद मानते थे, "यौन जरूरतों के सामने कोई भी बदसूरत चेहरा या भावनात्मक लगाव नहीं देखता, लेकिन यह शादी मुझे अकेलेपन में ढकेल गई।"

ग़मे-फिराक तो उस दिन ग़मे-फिराक हुआ, जब उनको प्यार किया मैंने जिनसे प्यार नहीं।

बेटे की मौत का दर्द-

फ़िराक़ गोरखपुरी, एक महान शायर, जिनकी शायरी ने न केवल उर्दू साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि दिलों में गहरे असर छोड़े। उनका जीवन ग़म और दर्द से भरा हुआ था, और इसी दर्द ने उनकी शायरी को और भी निखारा। उनका एक बेटा भी था, जो स्कूल में असफलता और सहपाठियों के ताने झेलने के कारण आत्महत्या कर गया, जिससे फ़िराक़ साहब की ज़िन्दगी और भी अधिक ग़मगीन हो गई। उनके शेर आज भी हर दिल में गूंजते हैं, और उनकी कविताएँ हमें ज़िन्दगी और मौत के बीच के अंतर को महसूस कराती हैं।

मौत का भी इलाज हो शायद

ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं।

हम तो कहते हैं वो ख़ुशी ही नहीं

जिस में कुछ ग़म का इम्तिज़ाज नहीं।।

फ़िराक़ गोरखपुरी की  शायरी में दर्द और ग़म की गहरी लकीरें-

फ़िराक़ गोरखपुरी, जिनकी शायरी में दर्द और ग़म की गहरी लकीरें हैं, 3 मार्च 1982 को हमें छोड़ गए, लेकिन उनकी आवाज़ और शब्द आज भी हमारे दिलों में गूंजते हैं। 86 वर्ष की आयु में निधन के बावजूद, उनकी शायरी का असर कभी फीका नहीं पड़ा। फ़िराक़ का हर एक अल्फ़ाज़ आज भी हमारे भीतर उन एहसासों को जिंदा करता है, जो वक्त के साथ सिमटते नहीं। उनकी गज़लों का जादू हमेशा हमारे साथ रहेगा, क्योंकि उनकी शायरी की धड़कनें कभी खत्म नहीं होंगी।

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