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एक ऐसा जादूगर जिसने 105 सेमी की हॉकी स्टिक से दो दशक तक दुनिया पर किया राज!

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(Special Story) भारतीय हॉकी के इतिहास में एक ऐसा नाम है जो स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया, उनकी हॉकी की स्टिक मानो जादू से कम नहीं थी, जिससे गेंद उनके कदमों के इशारों पर नाचती थी। मैदान पर जब भी वो उतरे, प्रतिद्वंद्वी टीमों के दिलों में खौफ और दर्शकों के दिलों में रोमांच भर गया। यह परिचय 105 सेमी लंबी हॉकी स्टिक के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद का है। उन्होंने न केवल गोल किए, बल्कि हॉकी को एक नई पहचान दी, जो आज भी हर खेल प्रेमी के दिल में बसी हुई है। मेजर ध्यानचंद सिर्फ एक खिलाड़ी ही नहीं थे, वो भारतीय खेल जगत के एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत को विश्व पटल पर गौरव दिलाया।

आज यानी 29 अगस्त को, भारत महान हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन मनाता है, जिसे देशभर में 'राष्ट्रीय खेल दिवस' के रूप में मनाया जाता है। मेजर ध्यानचंद का भारतीय खेल इतिहास में एक अद्वितीय स्थान है। यदि वह जीवित होते तो आज वह अपना 119वां जन्मदिन मना रहे होते। उन्हें प्यार से 'दद्दा' कहकर बुलाया जाता था।

राष्ट्रीय खेल दिवस का महत्व

राष्ट्रीय खेल दिवस सिर्फ एक तारीख नहीं है, बल्कि यह दिन खेल की शक्ति को दर्शाता है, जो पूरे राष्ट्र को एकजुट करने, प्रेरित करने और बदलाव लाने में सक्षम है। हर साल, इस दिन उन अनगिनत एथलीटों को श्रद्धांजलि दी जाती है, जिन्होंने वैश्विक मंच पर भारत का नाम रोशन किया है। राष्ट्रीय खेल दिवस हर भारतीय को शारीरिक फिटनेस अपनाने, खेलों में भाग लेने और स्वस्थ जीवन शैली के महत्व को समझने का आह्वान करता है। आज के दिन, हम सभी मेजर ध्यानचंद की स्मृति को नमन करते हैं और उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं, ताकि भारत खेलों के क्षेत्र में और ऊंचाइयां छू सके।

हॉकी के प्रति दीवानगी

साल था 1905, जब इलाहाबाद जिसे अब हम प्रयागराज के नाम से जानते हैं। यहाँ के एक साधारण परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। माता-पिता ने उसका नाम रखा ध्यान सिंह। लेकिन नियति ने उसके लिए कुछ और ही योजना बनाई थी। शायद ही किसी को अंदाजा था कि यही बच्चा एक दिन पूरी दुनिया में ‘हॉकी का जादूगर’ के नाम से मशहूर होगा। ध्यानचंद का जीवन उस समय की भारतीय हॉकी के लिए एक ऐसा चमत्कार साबित हुआ, जो सदियों तक याद रखा जाएगा। उनका बचपन सामान्य था, लेकिन उनके दिल में हॉकी के प्रति दीवानगी थी। उनके पिता भारतीय सेना में थे, और ध्यानचंद ने भी उनके पदचिह्नों पर चलने का फैसला किया। सेना में भर्ती होने के बाद, ध्यानचंद ने अपनी हॉकी कौशल को निखारना शुरू किया। वह अक्सर चांदनी रात में प्रैक्टिस करते थे। इस वजह से उनके दोस्तों ने उन्हें 'चंद' नाम से पुकारना शुरू कर दिया। ध्यानचंद के इस समर्पण ने भारतीय हॉकी को एक नई दिशा दी।

सेना में रहते हुए सीखी हॉकी-

मेजर ध्यानचंद का पहला प्यार हॉकी नहीं, बल्कि पहलवानी था। उनका असली नाम ध्यान सिंह था और बचपन में वह कुश्ती के प्रति विशेष रुचि रखते थे। मात्र 16 साल की उम्र में वह भारतीय सेना में शामिल हो गए थे। सेना में रहते हुए ही उन्होंने ब्राह्मण रेजीमेंट के मेजर तिवारी से हॉकी खेलना सीखा। 13 मई 1926 को ध्यानचंद ने भारत के लिए अपना पहला अंतरराष्ट्रीय मैच न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला था। 1948 में उन्होंने हॉकी से संन्यास लेने की घोषणा की। उनके असाधारण योगदान को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने 2021 में देश के सर्वोच्च खेल सम्मान 'राजीव गांधी खेल रत्न' का नाम बदलकर 'मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार' कर दिया।

तो ऐसे थे हिटलर का ऑफर ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद

भारतीय हॉकी के महानायक मेजर ध्यानचंद की खेल कला का हर कोई दीवाना था, और इस सूची में जर्मन तानाशाह हिटलर भी शामिल थे। मेजर ध्यानचंद और हिटलर के बीच का एक किस्सा आज भी लोगों की जुबान पर रहता है। भारतीय हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का खेल ऐसा था कि आम से लेकर खास, हर कोई उनका प्रशंसक बन गया था। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में, जब भारतीय हॉकी टीम ने शानदार प्रदर्शन किया, तो हिटलर भी उनकी खेल प्रतिभा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने मेजर ध्यानचंद को जर्मनी की सेना में एक उच्च पद की पेशकश की। लेकिन मेजर ध्यानचंद ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और गर्व के साथ कहा कि उन्होंने भारत का नमक खाया है, और वे अपने देश से कभी गद्दारी नहीं कर सकते। ध्यानचंद का खेल वास्तव में जादुई था, और उन्होंने भारत को वैश्विक खेल जगत में पहचान दिलाई। उनके इसी जादू ने उन्हें भारत का पहला ग्लोबल स्पोर्ट्स स्टार बना दिया।

जब ध्यानचंद ने भारत दिलाया ओलंपिक गोल्ड मैडल

साल 1928 में, ध्यानचंद को भारतीय हॉकी टीम में शामिल किया गया। उस समय भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और एम्स्टर्डम ओलंपिक में किसी को भी भारतीय टीम से किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद नहीं थी। लेकिन ध्यानचंद ने अपनी अनोखी खेल शैली से सबको चौंका दिया। उन्होंने अपनी टीम को पहला ओलंपिक गोल्ड मैडल दिलाया। ध्यानचंद की स्टिक में मानो कोई जादू था, गेंद उनके नियंत्रण में रहकर गोलपोस्ट तक पहुंच जाती थी, और विपक्षी टीमें बस बेबस होकर यह करिश्मा देखती रह जाती थीं। 1932 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक में ध्यानचंद की अगुवाई में भारतीय टीम ने एक और गोल्ड मैडल जीता। इस बार भारत ने अमेरिका को 24-1 के अंतर से हराया। यह हॉकी के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा स्कोर है। ध्यानचंद के नेतृत्व और खेल कौशल ने भारतीय हॉकी को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया था।

12 मैच में किए  37 गोल 

तीनों ओलंपिक खेलों में ध्यानचंद ने 12 मैच खेले और 37 गोल किए। उनकी खेल शैली ने उन्हें एक पहेली बना दिया था, जिसे कोई भी विरोधी टीम सुलझा नहीं सकी। यह दुर्भाग्य है कि आजाद भारत को ध्यानचंद के साथ ओलंपिक खेलने का मौका नहीं मिला। 1948 में जब ओलंपिक हुए, तब तक ध्यानचंद 40 साल की उम्र पार कर चुके थे, और उन्होंने खेल से संन्यास ले लिया था। लेकिन उनकी खेल की विरासत भारतीय हॉकी को लंबे समय तक दिशा देती रही।

भारतीय हॉकी का स्वर्णिम काल 

मेजर ध्यानचंद का योगदान भारतीय हॉकी के लिए काफी एहम रहा है। दूसरे विश्व युद्ध से पहले के वर्षों में हॉकी के खेल पर अपना वर्चस्व कायम करने वाली भारतीय हॉकी टीम के स्टार खिलाड़ी ध्यानचंद एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी थे, जिन्होंने 1928, 1932 और 1936 में भारत को ओलंपिक खेलों में लगातार तीन स्वर्ण पदक जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने टीम को आत्मविश्वास और प्रतिष्ठा दी, जिसने 1948, 1952 और 1956 में भी ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते। 

45 साल पहले दुनिया को कहा अलविदा-

3 दिसंबर 1979 को लीवर कैंसर के कारण ध्यानचंद का निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है। देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवार्ड’ भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है। मेजर ध्यानचंद की गौरवगाथा भारतीय खेल इतिहास का एक अमिट अध्याय है, जो हर भारतीय के लिए गर्व का प्रतीक है।

By Ankit verma 

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