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G-7 शिखर सम्मेलन से निकलेगी विश्व शांति की राह? चीन-रूस की बढ़ी चिंता! PM मोदी की 'बुद्ध नीति' पर हैं सबकी निगाहें

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विश्व राजनीति का तापमान एक बार फिर चढ़ा हुआ है। मध्य-पूर्व एशिया में जारी युद्ध, इस्राइल-ईरान टकराव, रूस-यूक्रेन संघर्ष और अमेरिका-चीन की तनातनी के बीच कनाडा में आयोजित हो रहा G-7 शिखर सम्मेलन वैश्विक शांति के लिए उम्मीद की एक किरण लेकर आया है। इस बार की बैठक में सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की नज़र न केवल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर है, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका को भी काफी अहम माना जा रहा है।

क्या G-7 से निकलेगा शांति का कोई ठोस फार्मूला?

विदेश नीति के जानकारों का कहना है कि मौजूदा दौर में विश्व अनिश्चितता और टकराव के भंवर में फंसा है। जी-7 के एजेंडे में शांति, ऊर्जा सुरक्षा, वैश्विक भूखमरी और बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दे शामिल हैं। माना जा रहा है कि इस बार एक महत्वपूर्ण शांति प्रस्ताव पारित हो सकता है, जिससे युद्धग्रस्त क्षेत्रों में तनाव कम करने की कोशिशें तेज होंगी। पूर्व विदेश सेवा अधिकारी कहते हैं, “अब समय आ गया है कि विश्व नेतृत्व सिर्फ आर्थिक विकास नहीं, बल्कि वैश्विक शांति के लिए भी एकजुट होकर सोचें।”

मोदी का ‘शांति का संदेश’ और वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कनाडा में मौजूद हैं और सूत्रों के अनुसार वे सम्मेलन में बुद्ध की विचारधारा का हवाला देते हुए “यह युद्ध का युग नहीं है” की नीति को सामने रख सकते हैं। मोदी पहले भी ईरान-इस्राइल और रूस-यूक्रेन संघर्षों को संवाद से हल करने की अपील करते रहे हैं। साइप्रस दौरे में भी प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया था कि युद्ध से केवल विनाश और मानवता का संकट निकलता है। अब सबकी निगाहें इस बात पर हैं कि क्या भारत इस बार G-7 मंच पर किसी नए वैश्विक समझौते का सूत्रधार बन सकता है?

इस्राइल बनाम ईरान: क्या असंतुलन और बढ़ेगा?

मध्य-पूर्व में इस समय इस्राइल और ईरान आमने-सामने हैं। जहां एक ओर इस्राइल के पास अत्याधुनिक हथियार, अमेरिका का समर्थन और सैन्य प्रभुत्व है, वहीं दूसरी ओर ईरान के पास जनशक्ति, ड्रोन, मिसाइलें और प्रॉक्सी नेटवर्क हैं। लेकिन वह ठोस सैन्य कवच और टेक्नोलॉजी में पिछड़ा हुआ है।

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश खुले तौर पर इस्राइल के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन करते हैं, जबकि तुर्किए, चीन और रूस इस सैन्य कार्रवाई को लेकर नाखुश हैं।

दुनिया दो गुटों में बंटी हुई है

इस पूरे परिदृश्य ने दुनिया को दो गुटों में बांट दिया है:

  • एक तरफ अमेरिका और उसके सहयोगी

  • दूसरी ओर रूस, चीन और तुर्किए जैसे देश

चीन और रूस G-7 का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन उनके लिए यह सम्मेलन बेहद अहम है, क्योंकि मध्य-पूर्व की घटनाएं उनकी रणनीतिक और आर्थिक नीतियों को प्रभावित कर रही हैं। चीन ने ईरान में भारी निवेश किया है और वह नहीं चाहता कि अमेरिका की पकड़ इस क्षेत्र में और मजबूत हो।

डोनाल्ड ट्रंप की रणनीति और अमेरिका का वॉरगेम

G-7 में अमेरिका की अगुवाई कर रहे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रणनीति साफ है—ईरान को परमाणु हथियारों से दूर रखना और इस्राइल की ताकत को बरकरार रखना। अमेरिका इस पूरे क्षेत्र में प्रॉक्सी डिप्लोमेसी और सैन्य संतुलन के सहारे अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा है। “आज की विश्व व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की भूमिका सवालों के घेरे में है। लगता है कि अब वैश्विक व्यवस्था सिर्फ बल और गठजोड़ से चल रही है।”

G-7 में क्या हो सकता है खास?

  • संयुक्त शांति प्रस्ताव पर मुहर लग सकती है

  • ईरान-इस्राइल संघर्ष को लेकर कोई संतुलित बयान आ सकता है

  • भारत की मध्यस्थता की भूमिका पर चर्चा हो सकती है

  • ग्लोबल सप्लाई चेन, ऊर्जा और खाद्य संकट पर समाधान पर काम हो सकता है

ओटावा में G-7 शिखर सम्मेलन: क्या भारत बन पाएगा वैश्विक शांति का सूत्रधार?

G-7 शिखर सम्मेलन केवल आर्थिक मसलों का मंच नहीं रह गया, यह अब वैश्विक सुरक्षा, कूटनीति और मानवता के भविष्य का केंद्र बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका और भारत का संतुलित रुख इस बार निर्णायक साबित हो सकता है। दुनिया अब इंतज़ार कर रही है – क्या ओटावा से निकलेगा शांति का नया संदेश?

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