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जब बॉलीवुड में चमक-धमक और बॉक्स ऑफिस की दौड़ अपने चरम पर थी, तब कुछ फिल्मकारों ने एक ऐसा रास्ता चुना जो न सिर्फ अलग था, बल्कि साहसी भी। यह रास्ता था पैरेलल सिनेमा का—एक ऐसा सिनेमा जो सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि समाज का दर्पण बनकर उसकी गहराई, जटिलताएं और अनसुनी कहानियां सामने लाता था। इस धारा ने भारतीय सिनेमा को नई परिभाषा दी और दर्शकों को सिर्फ कहानियां नहीं, सोचने का एक नया नजरिया भी दिया। आइए, इस सिनेमा की शुरुआत, इसके सुनहरे दिनों और आखिर क्यों यह धारा समय के साथ इतिहास के पन्नों में सिमट गई, इन पहलुओं को जानने की कोशिश करते हैं।
पैरेलल सिनेमा की शुरुआत: पश्चिम बंगाल से वैश्विक पहचान तक-
पैरेलल सिनेमा की शुरुआत इटली में 1940 के दशक में हुई थी, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी असल पहचान 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल से मिली। फिल्मकारों जैसे सत्यजीत रे, रित्विक घटक, बिमल रॉय, मृणाल सेन, और ख्वाजा अहमद अब्बास ने इस नई धारा को जन्म दिया। इन फिल्मकारों ने फिल्म निर्माण को एक नयापन दिया, जो सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं था, बल्कि समाज की समस्याओं, संघर्षों और जटिलताओं को भी पर्दे पर दिखाता था।
अंतरराष्ट्रीय पहचान: कान्स फिल्म फेस्टिवल से शुरू हुआ सफर-
पैरेलल सिनेमा ने न सिर्फ भारत में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी पहचान बनाई। नीचा नगर, जो कि चेतन आनंद द्वारा निर्देशित थी, वह पहली भारतीय फिल्म थी, जिसे कान्स फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला। इसके बाद, बिमल रॉय की दो बीघा जमीन (1953) को भी कान्स में इंटरनेशनल प्राइज मिला। ये फिल्में समाज के वास्तविक पहलुओं को प्रदर्शित करती थीं और इससे पैरेलल सिनेमा को एक विशेष पहचान मिली।
पैरेलल सिनेमा का गोल्डन एरा-
70 और 80 के दशक में पैरेलल सिनेमा अपने स्वर्णिम युग में था। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, मणि कौल, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अपनी रचनाओं से सिनेमा की दिशा को नया मोड़ दिया। इन फिल्मकारों ने समाज के विभिन्न पहलुओं, जैसे गरीबी, बेरोज़गारी, सामजिक असमानता और मानसिक दबाव को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया। फिल्में जैसे मंडी, अर्ध सत्य, स्पर्श और निशांत इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण फिल्में थीं।
पैरेलल सिनेमा की परिभाषा: असली कहानियां, असली लोग-
पैरेलल सिनेमा को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि इसकी फिल्मों में न तो कोई मसाला था, न ही कोई ड्रामा। यह एक सच्ची, गहरी और कच्ची कहानी थी, जिसमें फिल्मकार समाज की सच्चाई को निचोड़ कर दिखाते थे। इन फिल्मों में नाच-गाना, और थ्रिल जैसी चीजें नहीं होती थीं, बल्कि सच्चे इंसानी एहसासों, संघर्षों और मानवीय संवेदनाओं को फिल्म में उकेरा जाता था।
पैरेलल सिनेमा का पतन: व्यावसायिक सिनेमा की ओर मोड़-
पैरेलल सिनेमा की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इसमें आकर्षक मसाले और ड्रामा नहीं होते थे, जिसकी वजह से इन फिल्मों की सफलता बॉक्स ऑफिस पर असुरक्षित थी। आलोचनात्मक सराहना और अवार्ड मिलते थे, लेकिन दर्शकों के लिए इन्हें समझना और पसंद करना आसान नहीं था। इसके कारण प्रोड्यूसर्स का ध्यान इससे हट गया। इसके अलावा, पैरेलल सिनेमा के लिए नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ने कुछ फिल्मों का समर्थन किया, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।
पैरेलल सिनेमा के नायक: कला सिनेमा के सितारे-
पैरेलल सिनेमा के दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, अमोल पालेकर जैसे दिग्गज कलाकारों ने अपनी पहचान बनाई। इन सितारों ने अपने अभिनय से समाज की सच्चाइयों और दर्द को पर्दे पर जीवंत किया। इसके अलावा, कई बड़े बॉलीवुड अभिनेता और अभिनेत्रियाँ जैसे हेमा मालिनी, राखी और रेखा भी इस दौर में मसाला सिनेमा से हटकर कुछ आर्ट फिल्मों का हिस्सा बनीं।
पैरेलल सिनेमा की सबसे यादगार फिल्में-
• अर्ध सत्य (1982)
• बाजार (1982)
• मंडी (1983)
• निशांत (1975)
• मासूम (1983)
• स्पर्श (1980)
• रुई का बोझ (1987)
• मंथन (1976)
ये फिल्में न सिर्फ भारत, बल्कि विश्व सिनेमा में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं और इनका प्रभाव आज भी महसूस किया जाता है।
पैरेलल सिनेमा की अमिट छाप-
पैरेलल सिनेमा ने भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी। इसने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में न केवल बदलाव लाया, बल्कि दर्शकों को समाज की गहरी सच्चाइयों से भी रूबरू कराया। हालांकि व्यावसायिक फिल्मों के बढ़ते प्रभाव और रिस्क के कारण इसका अंत हुआ, फिर भी पैरेलल सिनेमा की जो छाप भारतीय सिनेमा पर छोड़ी है, वह कभी खत्म नहीं हो सकती।
Baten UP Ki Desk
Published : 28 November, 2024, 7:25 pm
Author Info : Baten UP Ki