हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्री नूतन, जिन्होंने अपने शानदार अभिनय और प्रभावशाली किरदारों से भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में एक अलग मुकाम हासिल किया, आज भी दर्शकों के दिलों में जिंदा हैं। आज यानी 21 फरवरी को उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर, हम उनकी जीवन यात्रा और उनकी सिनेमा में अमूल्य योगदान को याद कर रहे हैं।
जब नूतन ने ‘मुगल-ए-आजम’ का प्रस्ताव ठुकराया
नूतन का फिल्मी करियर 1945 में शुरू हुआ, लेकिन उन्होंने महज 14 साल की उम्र में एक ऐसा फैसला लिया, जो आज भी चर्चा में रहता है। के. आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में उन्हें अनारकली का किरदार निभाने का प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि वे खुद को ‘बदसूरत’ मानती हैं।
"बचपन में ताने, फिर बनीं मिस इंडिया-
दरअसल, बचपन में उन्हें सांवली त्वचा, कद और शरीर को लेकर कई ताने सुनने पड़े, जिससे उनका आत्मविश्वास प्रभावित हुआ। नूतन को शुरुआत में लोग बदसूरत होने के ताने दिया करते थे। कोई उन्हें बत्तख कहता तो कोई सांवले रंग पर ताने मारता। नूतन इससे दुखी हो जातीं, पर मां शोभना समर्थ ने हमेशा ही उनका हौसला बढ़ाया। रिश्तेदारों और ताने मारने वालों का मुंह तब बंद हो गया, जब नूतन ने फिल्मों में कदम जमाने के साथ-साथ मिस इंडिया का भी खिताब जीत लिया।
नूतन के यादगार किरदार और अविस्मरणीय फिल्में
नूतन ने अपने फिल्मी सफर में कई ऐतिहासिक किरदार निभाए, जो आज भी दर्शकों को भावुक कर देते हैं।
👉 ‘सुजाता’ (1959) – इस फिल्म में नूतन ने छुआछूत की सामाजिक समस्या को दर्शाने वाला किरदार निभाया। सुजाता की पीड़ा को उन्होंने इतनी खूबसूरती से पर्दे पर उकेरा कि उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
👉 ‘दिल्ली का ठग’ (1958) – इस फिल्म में नूतन ने 50 के दशक में स्विमिंग सूट पहनकर स्क्रीन पर तहलका मचा दिया था। उनका यह बोल्ड अंदाज आज भी याद किया जाता है।
👉 ‘बंदिनी’ (1963) – इस फिल्म में नूतन ने जेल में कैद एक महिला का किरदार निभाया, जिसका प्रेम और संघर्ष दर्शकों को भावुक कर देता है। इस फिल्म के प्रसिद्ध गीत ‘ओ मेरे मांझी’ के साथ नूतन की अदाकारी भी यादगार बन गई।
👉 ‘पेइंग गेस्ट’ (1957) – रोमांस और कॉमेडी के मिश्रण से भरपूर इस फिल्म में नूतन ने दिखाया कि वे सिर्फ गंभीर किरदार ही नहीं, बल्कि हल्के-फुल्के और चुलबुले रोल भी बखूबी निभा सकती हैं।
सिनेमा के हर रंग में नूतन का जलवा
नूतन ने ‘खानदान’ (1965), ‘मिलन’ (1967), ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ (1978) और ‘सौदागर’ (1973) जैसी फिल्मों में अपनी सशक्त अदाकारी से दर्शकों के दिलों पर राज किया। उनके हर किरदार में एक गहराई थी, जो उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग बनाती थी।
"नूतन की आखिरी चीखें: जब सिनेमा की मुस्कान दर्द में बदल गई"
21 फरवरी 1991... वो दिन जब हिंदी सिनेमा ने अपनी सबसे नैचुरल और दिल छू लेने वाली एक्ट्रेस को खो दिया। नूतन बहल, जिनकी सादगी और बेहतरीन अदाकारी ने लाखों दिलों पर राज किया, आज भी यादों में जिंदा हैं। लेकिन चमकती दुनिया के पीछे एक गहरी त्रासदी छुपी थी। नूतन ने फिल्मों में कई रिकॉर्ड बनाए, लेकिन जिंदगी ने उन्हें एक ऐसा दर्द दिया जिससे वह उबर न सकीं। जानलेवा बीमारी से जूझते हुए, उन्होंने अस्पताल में अपनी आखिरी सांस ली। कहा जाता है कि उनके आखिरी पल बेहद तकलीफ भरे थे। उनकी चीखें, उनका दर्द… सब कुछ एक महान कलाकार के असमय अंत की गवाही दे रहे थे।
नूतन की विरासत हमेशा अमर रहेगी
नूतन की सबसे खास बात यह थी कि वे अपने किरदारों में इस तरह ढल जाती थीं कि दर्शकों को लगता ही नहीं था कि वे कोई फिल्म देख रहे हैं, बल्कि वे उस किरदार को हकीकत में जी रहे हैं। यही वजह है कि आज भी उनकी फिल्में लोगों के दिलों में बसी हुई हैं। वे सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की एक अमूल्य धरोहर थीं। उनकी यादें, उनकी फिल्में और उनके किरदार हमेशा हमारे साथ रहेंगे।