दशकों पुरानी फाइलों में दबी सच्चाई आखिरकार अदालत में उजागर हुई, जब दूध और शक्कर में मानक कम मिलने के मामलों पर फैसला आया। चार दशक से न्याय के इंतजार में पड़े इन मामलों ने एक बार फिर हमारी न्याय प्रणाली की धीमी रफ्तार और इसकी जटिलताओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
दूध में फैट कम मिलने पर 42 साल बाद सजा
अल्लूनगर डिगुरिया निवासी मोतीलाल, जो फेरी लगाकर दूध बेचते थे, का मामला 1982 का है। 24 अक्तूबर 1982 को खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन (एफएसडीए) ने दूध का सैंपल लिया था। जांच में पाया गया कि दूध में फैट मानक से कम था। इस पर खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम 1954 (पीएफए एक्ट 1954) के तहत मामला दर्ज हुआ।
न्यायिक प्रक्रिया का निष्कर्ष-
चार दशक बाद, अदालत ने नवंबर 2024 में मोतीलाल को दोषी ठहराते हुए तीन हजार रुपये का जुर्माना लगाया और न्यायालय बंद होने तक वहीं रुकने की सजा सुनाई।
दूसरे दूध विक्रेताओं पर भी आरोप सिद्ध-
22 जून 1988 को इंदिरा नगर निवासी दूध विक्रेता रामलाल से वायरलेस चौराहे पर एफएसडीए ने दूध का नमूना लिया। जांच में दूध में 30% फैट कम पाया गया। इसी तरह गोसाईंगंज के सेमराप्रीतपुर के केशव की डेयरी से लिए गए नमूने में भी 22% फैट कम था।
नतीजा-
इन दोनों मामलों में भी खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के तहत तीन-तीन हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया और उन्हें अदालत बंद होने तक वहीं रुकने का निर्देश दिया गया।
शक्कर में सुक्रोज की मात्रा कम मिलने पर 21 साल बाद फैसला
बीकेटी के सुरेश चंद्र गुप्ता की दुकान से 8 सितंबर 2003 को एफएसडीए ने शक्कर का नमूना लिया। जांच में शक्कर में सुक्रोज की मात्रा निर्धारित सीमा से कम मिली और नमी भी पाई गई।
दोष सिद्ध होने पर सजा-
इस मामले में अदालत ने सुरेश को छह हजार रुपये का जुर्माना भरने का आदेश दिया और न्यायालय के बंद होने तक वहीं रुकने की सजा सुनाई।
न्याय प्रक्रिया में देरी: सवाल खड़े करती व्यवस्था
ये मामले देश की न्याय प्रक्रिया की धीमी गति का स्पष्ट प्रमाण हैं। 40 और 21 साल पुराने इन मामलों में देरी से न्यायालयों में लंबित मामलों की गंभीरता झलकती है। साथ ही, यह सवाल भी उठता है कि क्या इन वर्षों में पीड़ित पक्ष को न्याय मिल पाता है।
खाद्य सुरक्षा पर मजबूत निगरानी की जरूरत
इन मामलों से यह स्पष्ट है कि खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए न केवल सख्त कानून की आवश्यकता है, बल्कि मामलों की त्वरित सुनवाई भी होनी चाहिए। देरी से न्याय न केवल न्याय प्रक्रिया को कमजोर करता है, बल्कि जनता के विश्वास को भी हिला देता है।