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नए चेहरे, पुराने गठबंधन, और संजय निषाद की सियासी गणित! कैसी रहेगी भाजपा की चुनावी रणनीति?

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उत्तर प्रदेश के सियासी मंच पर आगामी उपचुनाव एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ा है। प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले इन चुनावों में भाजपा ने अपनी रणनीति को मजबूती से तैयार किया है। पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने 9 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का निर्णय लिया है, जबकि मीरापुर सीट पर अपने नए सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को मौका देने की सहमति बनाई है। इसके साथ ही भाजपा इस बार नए चेहरों को ज्यादा मौका देने की बात पर जोर दे रही है, जो यह दिखाता है कि पार्टी न केवल उपचुनावों को लेकर गंभीर है, बल्कि उत्तर प्रदेश में अपने पुराने समीकरणों को फिर से ताजा करने की कोशिश कर रही है।

मीरापुर सीट और रालोद: गठबंधन की मजबूती या सियासी दबाव?

मीरापुर सीट रालोद को देने का भाजपा का निर्णय कोई साधारण सियासी कदम नहीं है। यह सीट 2022 में भी रालोद के कब्जे में थी, इसलिए गठबंधन की मजबूती को कायम रखने के लिए इस कदम को देखा जा सकता है। हालांकि यह फैसला यह भी बताता है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ सियासी समझदारी बनाए रखना चाहती है। यह निर्णय रालोद की जमीन पर मजबूत पकड़ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट बैंक के महत्व को रेखांकित करता है। सवाल यह है कि क्या मीरापुर सीट देने का यह दांव पश्चिमी यूपी में भाजपा और रालोद के गठबंधन को और मजबूती देगा या यह केवल एक सियासी संतुलन बनाने की कोशिश है?

जातीय समीकरण और नए चेहरे: भाजपा का जोखिमभरा दांव-

जेपी नड्डा के नेतृत्व में हुई इस महत्वपूर्ण बैठक में भाजपा ने एक और बड़ा निर्णय लिया—नए चेहरों को ज्यादा मौका देना। यह कदम साफ तौर पर यह दर्शाता है कि भाजपा इस बार जातीय समीकरणों के आधार पर नई राजनीति करना चाहती है। उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण हमेशा से चुनावी राजनीति का केंद्र रहे हैं, और भाजपा यह अच्छी तरह समझती है कि इन समीकरणों को ध्यान में रखकर ही चुनावी खेल जीता जा सकता है। भाजपा के लिए कटेहरी, मिल्कीपुर, और मझंवा जैसी सीटें खास महत्व रखती हैं, जहां से पिछड़े और दलित नेताओं को मौका दिए जाने की संभावना है। ये सीटें भाजपा के लिए सियासी प्रतिष्ठा का सवाल बन चुकी हैं, और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इन सीटों पर खास नजर रख रहे हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि नए चेहरे क्या इन सीटों पर पुरानी परंपरा को तोड़ पाते हैं या नहीं।

संजय निषाद और भाजपा: गठबंधन में दरार या सियासी मजबूरी?

इस पूरे सियासी घटनाक्रम का सबसे रोचक पहलू है निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद और भाजपा के बीच की खींचतान। कटेहरी और मझंवा सीटों पर संजय निषाद की दावेदारी को लेकर पार्टी में अंदरूनी खींचतान जारी है। संजय निषाद का तर्क है कि जब 2022 में ये सीटें उनकी पार्टी को दी गई थीं, तो इस बार क्यों नहीं? उनकी मांग है कि गठबंधन धर्म का पालन किया जाए, खासकर तब जब मीरापुर सीट रालोद को दी जा रही है। यह सियासी दांव भाजपा के लिए एक चुनौती है। गृह मंत्री अमित शाह ने संजय निषाद को मनाने की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और दोनों उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को सौंपी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा संजय निषाद की मांगों को पूरी तरह मानकर अपने अंदरूनी समीकरणों को खतरे में डालेगी, या उसे अपने बड़े लक्ष्य के लिए निषाद पार्टी को एक सीट देकर संतोष करना पड़ेगा?

गठबंधन की चुनौतियाँ और भाजपा की रणनीति-

भाजपा और निषाद पार्टी के बीच यह सियासी खींचतान इस बात का संकेत है कि गठबंधन राजनीति में संतुलन बनाना आसान नहीं है। भाजपा के लिए यह चुनाव न केवल 9 सीटों की जीत का सवाल है, बल्कि यह दिखाने का मौका भी है कि वह अपने सहयोगियों के साथ मिलकर किस तरह एक मजबूत सियासी गठबंधन बनाए रख सकती है। बैठक में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने न केवल प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया पर चर्चा की, बल्कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उतारे गए उम्मीदवारों के खिलाफ रणनीति पर भी विचार किया। खासकर उन सीटों पर, जहां सपा का दबदबा है, भाजपा अपनी सियासी ताकत को और अधिक प्रभावी तरीके से इस्तेमाल करने की योजना बना रही है।

नतीजे और भविष्य की तस्वीर-

भाजपा के लिए उपचुनाव केवल सीटों की लड़ाई नहीं है, यह 2024 के लोकसभा चुनावों की दिशा तय करने वाला मील का पत्थर है। इन उपचुनावों के परिणाम भाजपा के लिए इस बात का संकेत देंगे कि उत्तर प्रदेश में उसकी जमीन कितनी मजबूत है, खासकर तब जब विपक्ष भी पूरी ताकत से मैदान में है। गठबंधन राजनीति, जातीय समीकरण, और नए चेहरों के माध्यम से भाजपा इस लड़ाई को जीतने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या उसकी यह सियासी रणनीति सफल होती है या नहीं। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर यह उपचुनाव निश्चित रूप से आने वाले बड़े चुनावों की दिशा तय करेंगे।

नए चेहरे, पुराने गठबंधन, और संजय निषाद की सियासी गणित-

उत्तर प्रदेश के सियासी मंच पर आगामी उपचुनाव एक दिलचस्प मोड़ पर खड़ा है। प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले इन चुनावों में भाजपा ने अपनी रणनीति को मजबूती से तैयार किया है। पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने 9 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का निर्णय लिया है, जबकि मीरापुर सीट पर अपने नए सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को मौका देने की सहमति बनाई है। इसके साथ ही भाजपा इस बार नए चेहरों को ज्यादा मौका देने की बात पर जोर दे रही है, जो यह दिखाता है कि पार्टी न केवल उपचुनावों को लेकर गंभीर है, बल्कि उत्तर प्रदेश में अपने पुराने समीकरणों को फिर से ताजा करने की कोशिश कर रही है।

मीरापुर सीट और रालोद: गठबंधन की मजबूती या सियासी दबाव?

मीरापुर सीट रालोद को देने का भाजपा का निर्णय कोई साधारण सियासी कदम नहीं है। यह सीट 2022 में भी रालोद के कब्जे में थी, इसलिए गठबंधन की मजबूती को कायम रखने के लिए इस कदम को देखा जा सकता है। हालांकि यह फैसला यह भी बताता है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ सियासी समझदारी बनाए रखना चाहती है। यह निर्णय रालोद की जमीन पर मजबूत पकड़ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट बैंक के महत्व को रेखांकित करता है। सवाल यह है कि क्या मीरापुर सीट देने का यह दांव पश्चिमी यूपी में भाजपा और रालोद के गठबंधन को और मजबूती देगा या यह केवल एक सियासी संतुलन बनाने की कोशिश है?

जातीय समीकरण और नए चेहरे: भाजपा का जोखिमभरा दांव-

जेपी नड्डा के नेतृत्व में हुई इस महत्वपूर्ण बैठक में भाजपा ने एक और बड़ा निर्णय लिया—नए चेहरों को ज्यादा मौका देना। यह कदम साफ तौर पर यह दर्शाता है कि भाजपा इस बार जातीय समीकरणों के आधार पर नई राजनीति करना चाहती है। उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण हमेशा से चुनावी राजनीति का केंद्र रहे हैं, और भाजपा यह अच्छी तरह समझती है कि इन समीकरणों को ध्यान में रखकर ही चुनावी खेल जीता जा सकता है। भाजपा के लिए कटेहरी, मिल्कीपुर, और मझंवा जैसी सीटें खास महत्व रखती हैं, जहां से पिछड़े और दलित नेताओं को मौका दिए जाने की संभावना है। ये सीटें भाजपा के लिए सियासी प्रतिष्ठा का सवाल बन चुकी हैं, और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इन सीटों पर खास नजर रख रहे हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि नए चेहरे क्या इन सीटों पर पुरानी परंपरा को तोड़ पाते हैं या नहीं। 

संजय निषाद और भाजपा: गठबंधन में दरार या सियासी मजबूरी?

इस पूरे सियासी घटनाक्रम का सबसे रोचक पहलू है निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद और भाजपा के बीच की खींचतान। कटेहरी और मझंवा सीटों पर संजय निषाद की दावेदारी को लेकर पार्टी में अंदरूनी खींचतान जारी है। संजय निषाद का तर्क है कि जब 2022 में ये सीटें उनकी पार्टी को दी गई थीं, तो इस बार क्यों नहीं? उनकी मांग है कि गठबंधन धर्म का पालन किया जाए, खासकर तब जब मीरापुर सीट रालोद को दी जा रही है। यह सियासी दांव भाजपा के लिए एक चुनौती है। गृह मंत्री अमित शाह ने संजय निषाद को मनाने की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और दोनों उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक को सौंपी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा संजय निषाद की मांगों को पूरी तरह मानकर अपने अंदरूनी समीकरणों को खतरे में डालेगी, या उसे अपने बड़े लक्ष्य के लिए निषाद पार्टी को एक सीट देकर संतोष करना पड़ेगा?

गठबंधन की चुनौतियाँ और भाजपा की रणनीति-

भाजपा और निषाद पार्टी के बीच यह सियासी खींचतान इस बात का संकेत है कि गठबंधन राजनीति में संतुलन बनाना आसान नहीं है। भाजपा के लिए यह चुनाव न केवल 9 सीटों की जीत का सवाल है, बल्कि यह दिखाने का मौका भी है कि वह अपने सहयोगियों के साथ मिलकर किस तरह एक मजबूत सियासी गठबंधन बनाए रख सकती है। बैठक में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने न केवल प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया पर चर्चा की, बल्कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा उतारे गए उम्मीदवारों के खिलाफ रणनीति पर भी विचार किया। खासकर उन सीटों पर, जहां सपा का दबदबा है, भाजपा अपनी सियासी ताकत को और अधिक प्रभावी तरीके से इस्तेमाल करने की योजना बना रही है।

नतीजे और भविष्य की तस्वीर-

भाजपा के लिए उपचुनाव केवल सीटों की लड़ाई नहीं है, यह 2024 के लोकसभा चुनावों की दिशा तय करने वाला मील का पत्थर है। इन उपचुनावों के परिणाम भाजपा के लिए इस बात का संकेत देंगे कि उत्तर प्रदेश में उसकी जमीन कितनी मजबूत है, खासकर तब जब विपक्ष भी पूरी ताकत से मैदान में है। गठबंधन राजनीति, जातीय समीकरण, और नए चेहरों के माध्यम से भाजपा इस लड़ाई को जीतने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या उसकी यह सियासी रणनीति सफल होती है या नहीं।  उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर यह उपचुनाव निश्चित रूप से आने वाले बड़े चुनावों की दिशा तय करेंगे।

By Ankit Verma 

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