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उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार और इसके प्रभाव

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स्वतंत्रता पश्चात्, संविधान की प्रस्तावना और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में वर्णित सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए भूमि सुधार की आवश्यकता महसूस की गयी। भारत सरकार ने 1951 में प्रथम संविधान संशोधन द्वारा नौवी अनुसूची को जोड़कर भूमि सुधार को लागू किया गया। स्वतंत्र भारत में भूमि सुधार के संबंध में जे.सी.कुमारप्पन समिति का गठन किया गया।

भूमि सुधार के उद्देश्य–

  • बड़ी जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के कृषि उत्पादकता में वृद्धि करने हेतु।
  • जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन कर छोटे किसानों को शोषण से मुक्त करवा कर सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना।

उत्तर प्रदेश भूमि सम्बन्धी कानूनी जानकारियाँ 
उत्तर प्रदेश पहले आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत को शामिल करने वाले प्रान्त के रूप में जाना जाता था। यद्यपि उत्तर प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम के प्रवर्तन पर इनमें राजस्व विधि की समान प्रणाली थी किन्तु 1939 के उत्तर प्रदेश काश्तकारी अधिनियम-17 के पुनःस्थापन तक कास्तकारी विधि अत्यन्तिक रूप से भिन्न थी। आगरा के प्रान्त को पहले उत्तर पश्चिम प्रान्त के रूप में जाना जाता था, जो फोर्ट विलियम के प्रेसीडेंसी का भाग था और जिसे बंगाल विनियम द्वारा शासित किया जाता था। 

वर्ष 1859 में, 1859 का लगान वसूली अधिनियम संख्या 10 पुनः स्थापित किया गया, जिसने एक तरह से अधीनस्थ काश्तकारों के अधिकारों को परिभाषित किया किन्तु इसने मनमाने पूर्ण बेदखली के लिए मार्ग खोल दिया जबकि काश्तकारों को लगान की वृद्धि से और अनैतिक भू-स्वामियो द्वारा व्यर्थ मुकदमेंबाजी से कोई पर्याप्त संरक्षण प्रदान नही किया। यह महसूस किया गया कि यह विधि क्रान्तिकारी परिवर्तन की अपेक्षा करती है किन्तु प्रथम विश्वयुद्ध के कारण वर्ष 1926 तक कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा सका ।

अवध प्रान्त ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा अधिनियमन के पूर्व, अवध के राजाओं द्वारा शासित किया जाता था। उनकी राजस्व की वसूली की भिन्न-भिन्न प्रणाली थी और इसे मुस्ताजीरी के माध्यम से या नाजिम, चकलादार या अन्य वसूली पदाधिकारियों की नियुक्ति द्वारा वसूल किया जाता था। भूमि के तात्कालिक धारक का कोई सारभूत अधिकार नही था और वे इन लगान वसूल करने वालो की दया पर थे। अवध को 13 फरवरी, 1856  को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया था। भारत के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को अवध के अंग्रेज अधिकारी आउट्रम ने अवध में बन्दोबस्त को पूरा करने के लिए एक पत्र लिखा लेकिन इस बंदोबस्त के पूरा होने से पहले ही 30 मई 1857 को 1857 की क्रान्ति आरम्भ हो गयी। चूंकि ब्रिटिश सरकार का प्राधिकार स्थाई हो गया, इसलिए पहले से पारित किये गये सभी अभिलेख नष्ट कर दिये गये। क्रांति के समाप्त होने के बाद, भारत के वायसराय लार्ड कैनिंग ने अवध प्रान्त की भूमि में सभी स्वत्वधारी अधिकारों को जब्त कर, 15 मार्च 1859 को घोषणा जारी की । इसके बाद दूसरा संक्षिप्त बंदोबस्त लागू किया गया। जिससे ताल्लुकदारों और भू स्वामियों की स्थिति सुनिश्चित हो गई किन्तु अधीनस्थ स्वत्वधारियों या अन्य अधीन काश्तकारों को कोई रियायत नहीं दी गयी ।

वर्ष 1864 में सर जान लॉरेन्स भारत के वायसराय बने। वे पंजाब और उत्तर पश्चिम प्रान्त में लगान विधि के कार्य को संपन्न किया था, वह ऐसी ही प्रक्रिया अवध में लागू करने के हिमायती थे। उन्होंने अवध उप-बन्दोबस्त अधिनियम 1886 द्वारा अधीनस्थ काश्तकारों के अधिकारों को पुन: मान्यता देने का मार्ग प्रशस्त किया और इसी के परिणामस्वरूप, 1868 में अवध के लिए प्रथम लगान अधिनियम, (1868 का अधिनियम-19) पारित किया गया । तत्पश्चात,1870 के अधिनियम 7 द्वारा कुछ भाग को हटाया गया । कुछ बिन्दुओं को 1871 के अधिनियम 32, 1876 के अधिनियम 18, 1878 के अधिनियम 14 और 1882 के अधिनियम 14 द्वारा संशोधित किया गया है। वर्ष 1886 में, 1886 का अधिनियम पारित किया गया जिसने काश्तकारों को कुछ संरक्षण प्रदान किए। इस अधिनियम द्वारा किए गये प्रावधान निम्न थे- 

  • काश्तकारों का कानूनी अधिकार
  • लगान की वृद्धि की सीमा,
  • बेदखली पर निर्बन्धन और
  • सुधार का काश्तकारों का अधिकार

1890 के अधिनियम 20 और 1891 के अधिनियम 12 द्वारा संशोधन किया गया किन्तु उसके द्वारा उस सिद्धांत को परिवर्तित नहीं किया गया, जिस पर मूल अधिनियम निर्मित किया गया था। 1901 के संशोधन अधिनियम 4 ने लगान विधि में दो नए प्रावधान किये -

  • पूर्व स्वत्वधारी काश्तकारों का पुनर्ग्रहण और
  • लगान मुक्त अनुदानका पुनर्ग्रहण। 

यद्यपि ये अधिनियम और संशोधन अपने प्रभाव में प्रभावी थे फिर भी आर्थिक स्थिति को परिभाषित करने में सफल नहीं हुए, जो जनसंख्या में वृद्धि, कृषि के विकास और कृषि उत्पाद के मूल्य में वृद्धि के साथ उत्पन्न हुए थे। हर ओर असन्तोष और गुस्सा बढ़ रहा था। जिसे भुनाने के लिए अन्ततः किसान सभा द्वारा आन्दोलन आरंभ हुआ। सम्पूर्ण प्रान्त में भीषण दंगे हुए। आन्दोलनकारियों का नारा था "नजराना नहीं, बेदखली नहीं”, जबकि बदले में भू-स्वामियों ने काश्तकारों के बीच सम्बन्ध को सुधारने के लिए और विशेष रूप से काश्तकारों को उचित लगान देने के लिए 1921 का अवध लगान (संशोधन) अधिनियम- 4 लागू किया ।

इस अधिनियम पर आगरा प्रान्त में प्रतिक्रिया हुई। किसानों के एका आंदोलन ने ज़ोर पकड़ लिया और सरकार दो निष्कर्ष निकालने के लिए बाध्य हुई- (1) यह असभ्यपूर्ण है और आगरा प्रान्त के असंरक्षित काश्तकारों को अवध में नए कानूनी काश्तकारों की अपेक्षा कम सुरक्षित स्थिति में छोड़ना सम्भव नहीं है (2) इस मामले पर विचार करना उस समय हमारा कर्तव्य है, जब प्रान्त में शान्ति हो, जिससे उपर्युक्त समय में कृषक असन्तोष के ऐसे आधारों को दूर किया जाए जो असंतोष को बढ़ावा दे।

सरकार ने परिणामस्वरूप 1926 का आगरा काश्तकारी अधिनियम-3 लागू किया । ये अधिनियम भूस्वामी और सरकार के बीच समझौते का परिणाम था, जो काश्तकारों और अन्य अधीनस्थ काश्तकारों के हितों का प्रतिनिधित्व करता था। इस अधिनियम का उद्देश्य काश्तकारों के संरक्षण का सुनिश्चित करते हुए सरकार द्वारा भू-स्वामियों को कुछ रियायत प्रदान करना था। इस अधिनियम का दुरुपयोग किया गया, जिसके परिणामस्वरुप 1930-31 में ‘लगान नही' और ‘राजस्व नहीं' आन्दोलन शुरू हुआ जिसका कारण लगान की उच्च दर का होना था, जो कृषि उत्पाद की कीमत में अचानक कमी के कारण दमनकारी हो गया। स्थिति को सम्भालने के लिए सरकार ने 1930 का संयुक्त प्रान्त आपात शक्ति आदेश-12 और 1932 का संयुक्त प्रान्त विशेष शक्ति अधिनियम-14 लागू किया । काश्तकारों की 1932 के संयुक्त प्रान्त लगान बकाया अधिनियम-1 द्वारा लगान के बकाये के कारण बेदखली से संरक्षण प्रदान किया गया । 1937 और 1938 फसलों के लिए बकाये में 25 प्रतिशत तक की छूट का प्रावधान करता था ।

उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950
उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के अन्तर्गत निम्नलिखित धाराओं के अन्तर्गत कानूनी कार्यवाहियों की जानकारी निम्नवत् है-

जमींदारी उन्मूलन अधिनियम एवं भूमि व्यवस्था उत्तर प्रदेश विधान सभा द्वारा स्वीकृत की गयी ।

24 जनवरी 1951 में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह गज़ट में प्रकाशित हुयी, जिसे जमींदारी उन्मूलन अधिनियम 1950 के नाम से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम व जमींदारी कानून दोनों लागू है। इस लिए दोनों तरह की जोतें है और दोनों तरह की भूमि सम्बन्धित अभिलेख तैयार किये जाते है जिनको जमींदार उन्मूलन तथा जमींदारी क्षेत्र कहते हैं। उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था (संशोधन ) विधेयक 2015 उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 26 अगस्त, 2015 को विपक्षी दलों के विरोध के बीच अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन अन्य जातियों के लोगों को बेचने पर लागू प्रतिबंधों को शिथिल करने के लिए उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था (संशोधन ) विधेयक 2015 ध्वनिमत से पारित कर दिया।

इस विधेयक के जरिये मौजूदा कानून के उस प्रावधान को शिथिल करने की व्यवस्था की गयी है जिसके तहत अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति जिलाधिकारी की अनुमति के बिना अपनी जमीन अन्य जाति के व्यक्ति को नहीं बेच सकता। यदि उसके पास 1.26 हेक्टेयर से कम ज़मीन है तो वह जिलाधिकारी की अनुमति से भी उसे नहीं बेंच सकते ।
उत्तर प्रदेश जोत चकबन्दी अधिनियम
उत्तर प्रदेश में कृषि भूमि के पुर्नगठन व सुधार तथा कृषि क्षेत्र में नहर, नाली, सड़क, चकरोड एवं गाँव में ग्राम पंचायत, स्कूल, चारागाह आबादी, सड़क एवं अन्य सार्वजनिक आवश्यकता पूर्ति हेतु उत्तर प्रदेश जोत चकबन्दी अधिनियम 1953 राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित होकर 4 मार्च सन् 1954 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित हुआ तथा 8 मार्च 1954 को गज़ट होकर उत्तर प्रदेश में लागू हुआ।
 

  • उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के अनुमान पर कि अमुक्त गाँव में चकबन्दी की आवश्यकता है तो उस गाँव में धारा 4 (1) का प्रकाशन राज्य सरकार करती है। धारा 4 के प्रकाशन के बाद गाँव के वर्तमान अभिलेख चकबन्दी विभाग के सम्बन्धित पैमाइश कर्ता को प्राप्त होता है जो गाँवों के पैमाइश कर नक्शा बनाकर व मिलान कर चकबन्दी विभाग को सौंपता है। चकबन्दी कर्ता पुनः उक्त गाँव के प्रत्येक लाट को मौक़े पर मिलाता है तथा उनसे सम्बन्धित समस्त तथ्यों जैसे रकवा, खातेदार की मृत्य, भूमि पर मालिकाना हक़, फ़सलों के प्रकार आदि कई प्रश्नों पर परीक्षण करते हैं और उक्त खसरा को आकार पत्र 2 कहते हैं।
  • आकार पत्र 2 एवं अन्य एकत्रित सूचनाओं के आधार पर आकार पत्र 11 बनाया जाता है जिसमें प्रत्येक बिन्दू जो भूमि व मालिकाना को प्रभावित करते है। उनको विन्दूवार व खातावार अंकित किया जाता है तथा इसी की प्रतिलिपि खातेदार को आकार पत्र 5 के रूप में वितरीत होती है।
  • चकबन्दी अधिकारी के आदेश के विरुद्ध 21 दिन के अन्दर अपील धारा 11 के अन्तर्गत बन्दोबस्त चकबन्दी अधिकारी के समक्ष होती है जो इन दोनों पक्षों को सुन कर निर्णय करता है।
  • उप पंचायत चकबन्दी धारा 48 चकबन्दी अधिनियम के `अन्तर्गत बन्दोबस्त चकबन्दी अधिकारी के आदेश के विरुद्ध निगरानी सुनता व निर्णय करता है। यह चकबंदी का अंतिम न्यायालय है। इसके विरुद्ध क्षुब्ध व्यक्ति माननीय उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत कर सकता है।
  • जिस गाँव में 50 से ज्यादा विवादों का निपटारा हो जाता है तो वहाँ धारा 19 चकबन्दी अधिनियम के अन्तर्गत खातेदारों के चको का निर्माण रास्ता,नहर चकनाली आदि 5 प्रतिशत तक कटौती द्वारा किया जाता है और उसको आधार पत्र 23 में खातेदार को वितरीत कर तथा 21 दिन के अन्दर खातेदार को आपत्ति करनी होती है। उक्त आपत्ति का चकबंदी अधिकारी द्वारा निपटान किया जाता है जिसकी अपील धारा 21 के अंतर्गत बंदोबस्त अधिकारी चकबंदी के समक्ष होती है ।
  • इस प्रकार गाँव के भूमि का प्रबन्धन करने का प्रावधान है किन्तु सरकार, कर्मचारियों के काम चलाऊ तरीकें एवं ग्रामीणों में जागरुकता की कमी एवं भ्रष्टाचार के कारण एक उचित प्रक्रिया का निरुपण नही हो पा रहा है। इसमें हजारों वाद निलम्बित है तथा कृषक न्याय पाने से वंचित हो रहे हैं।

निष्कर्ष- 
नीति आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की आय को बढ़ाने के लिए भूमि जोत के आकार में वृद्धि को महत्वपूर्ण माना है। जिसके लिए सहकारी कृषि को बढ़ावा देने और भूमि को पट्टे पर देने की आवश्यकता है। स्वामित्व योजना के माध्यम से भूमि रिकार्ड का डिजिटलीकरण करने जैसे अन्य आधुनिक उपायों को अपनाना चाहिए। भूमि सुधारों के क्रियान्वयन की गति सुस्त है। आधुनिक तकनीकि, कुशल मानव प्रबंधन के द्वारा इसमें तेजी लाई जा सकती है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न- 
प्रश्न.1 भारत में भूमि सुधारों के बिना समावेशी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में होने वाले भूमि सुधारों का मूल्यांकन करें।  
प्रश्न.2 उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था (संशोधन) विधेयक 2015 की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करें। 

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