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निबंधात्मक मुद्दे भाग 10 : भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी

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भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका 

महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी वर्तमान में एक ज्वलंत मुद्दा है। देश की आधी आबादी का संसद और राज्य विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व ग्यारह प्रतिशत से भी कम हो तो यह चिंता की बात है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार संसदीय और राज्य विधायिका के चुनावों में केवल 8% ही महिला उम्मीदवार हैं। लोकतंत्र की सफलता जनता की सहभागिता और वंचितों के उत्थान में है। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी न केवल उनका हक है बल्कि यह लोकतंत्र की मूल भावना के लिए भी आवश्यक है। प्राचीन काल से ही भारत में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के साक्ष्य मिलते हैं। स्वतंत्रता के बाद संविधान में ही महिलाओं को राजनीति अधिकार देने वाले में देशों भारत प्रमुख था परंतु आजादी के 75 वर्ष बाद भी महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं मिल पाया है। वर्तमान में विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा यह मांग की जा रही है। सवाल यह है कि यह क्यों जरूरी है?

महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी कानून निर्माण एवं क्रियान्वयन में उनकी सहभागिता को बढ़ाकर उनके सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त करेगी। वे स्वयं अपनी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास कर सकेंगी और समाज में अन्य महिलाओं के लिए रोल मॉडल के रूप में कार्य करेंगी जो और अधिक महिला सहभागिता को प्रोत्साहित करेंगी। राजनीतिक भागीदारी महिलाओं को सक्रिय नागरिक बनाएगी। इनका बढ़ता आत्मविश्वास अपराधों की रिपोर्टिंग तथा सक्रिय प्रतिरोध में सक्षम बनाएगा। महिलाओं की राजनीति भागीदारी के इतिहास, वर्तमान स्थिति और चुनौतियों आदि का आगे विस्तृत उल्लेख किया गया है। 

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के संबंध में भारत अद्वितीय था। वैदिक काल में सभा और समितियों में महिलाओं की भागीदारी के उल्लेख मिलते हैं। मौर्यकालीन भारत में प्रशासकीय पदों पर महिलाओं की नियुक्ति की जाती थी। सातवाहन काल में महिलाओं के महत्व के साक्ष्य मिलते हैं। हालांकि मध्यकाल में राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी आई पर रजिया सुल्तान, रानीदिद्दा जैसी शासिकाएँ इस काल में भी थीं। ब्रिटिश शासन के दौरान लंबे समय तक महिलाएँ मताधिकार से वंचित रहीं और स्वतंत्रता के समय भारत की यही पृष्ठभूमि थी। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में रानी लक्ष्मीबाई, मैडम भीकाजी कामा, कस्तूरबा गांधी, अरूणा आसफ अली, सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी आदि की भूमिका ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने में प्रेरक भूमिका निभाई। संविधान निर्मात्री सभा में 15 महिला सदस्यों को शामिल किया गया था। 

भारत में स्वतंत्रता के बाद भारत की पहली कैबिनेट में केवल एक महिला, राजकुमारी अमृत कौर, थी जिन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय का प्रभार दिया गया था। तीसरी कैबिनेट में किसी महिला को जगह नहीं दी गई। यहां तक कि भारत की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कैबिनेट में एक भी महिला केंद्रीय मंत्री नहीं थी। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में केवल एक महिला, मोहसिना किदवई, को शामिल किया गया था। 1992 तक के काल में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी अत्यंत सीमित रही संविधान में मत देने के अधिकार के सीमित प्रयोग के अलावा महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के लिए विशेष प्रयास नहीं किए गए। 1992 के बाद इस स्थिति में परिवर्तन आया।

भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाने में सबसे क्रांतिकारी कदम 1992 के 73वें संविधान संशोधन द्वारा उठाया गया। 1992 के 73वें संविधान संशोधन ने यह अनिवार्य कर दिया कि देश में ग्राम पंचायत चुनावों में एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। यह नीति स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए लागू की गई थी। विभिन्न शोध यह दर्शाते हैं कि ग्राम सरपंच के रूप में चुनी गई महिलाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और यह अनिवार्यता 1990 के दशक के मध्य से राज्य और राष्ट्रीय विधायिका सीटों पर चुनाव लड़ने वाली महिला उम्मीदवारों में वृद्धि के एक बड़े हिस्से का कारण रही है। हालांकि उच्च पदों पर महिला प्रतिनिधित्व अभी भी कम बना हुआ है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की सदस्यता लगभग ग्यारह प्रतिशत है और महिला आरक्षण विधेयक 2010 से ही लंबित है।

16 वीं और 17 वीं लोकसभा में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है। 2014 में 16 वीं लोकसभा में कुल नौ महिला सांसदों को कैबिनेट और राज्य मंत्री बनाया गया था। 16 वीं लोकसभा में 64 तथा 17 वीं लोकसभा में 78 महिला सदस्य महिला चुनी गई जो अब तक की उच्चतम संख्या है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार "यह देश के इतिहास में लोकसभा में पहुंचने वाली महिलाओं की सबसे अधिक संख्या है। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का एक पक्ष मतदान में भागीदारी भी है।

पिछले लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं द्वारा 65.63% मतदान किया गया जबकि पुरुष मतदान 67.09% था। लेकिन फिर भी स्थिति को पूरी तरह से बेहतर नहीं माना जा सकता है। मतदान में हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से ज्यादातर परिवारिक सदस्यों (विशेष रूप से पुरुष) की इच्छा के अनुसार मत देती हैं, हालांकि इस व्यवहार में जागरुकता बढ़ने के साथ साथ कमी आ रही है, फिर भी यह समस्या अभी भी बनी हुई है। सक्रिय राजनीति में महिलाओं की कम संख्या के लिए केवल राजनीतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि हमारा समाज भी है, जो राजनीति में महिलाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। साधारण परिवारों की महिला उम्मीदवारों के जीतने की बहुत कम संभावना होती है चुनावों में धन और बाहुबल के बढ़ते प्रयोग के कारण महिलाओं के लिए यह क्षेत्र और कठिन हो गया है। इसके अलावा घरेलू काम में समय नहीं दे पाना, राजनीतिक शिक्षा का अभाव जैसी अन्य कई समस्याएं हैं जो उनके सक्रिय राजनीति में भागीदारी में अड़चन बनती हैं।

इस प्रकार महिलाओं की सहभागिता कम होने के विभिन्न कारण देखे जा सकते हैं जैसे, महिलाओं में राजनीतिक शिक्षा की कमी पितृसत्तात्मक समाज, रूढ़ियां, असुरक्षा का भय तथा राजनीति में बढ़ता धन और बाहुबल का प्रयोग महिलाओं की भागीदारी के प्रमुख अवरोधक हैं। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रयासों की आवश्यकता है।

ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 153 देशों में भारत महिला प्राप्ति के क्षेत्र में 112वें पायदान पर है। महिलाओं की राजनीति शिक्षा पर बल दिए जाने की आवश्यकता पंचायतों में चुनी गई महिलाओं को अपना कार्य समझने तथा क्रियान्वित करने के लिए उनके कौशल प्रशिक्षण के उपाय किए जाने चाहिए। और सबसे महत्वपूर्ण समाज की में परिवर्तन किया जाता है इसके लिए शिक्षा, प्रचार तथा महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।

कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि संवेदना कभी स्वयं वेदना का स्थान नहीं ले सकती है। महिलाओं की समस्याओं और पीड़ा को महिलाएं ही बेहतर तरीके से समझ सकती हैं इसलिए महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत करने का आधार बनेगी। भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी, सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी, जयललिता, मायावती, निर्मला सीतारमन, स्मृति ईरानी और ममता बनर्जी जैसी सफल नेत्रियां महिलाओं की क्षमता प्रदर्शित करती हैं। समय आ गया है कि महिलाओं का उनका हक दिया जाए।

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