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निबंधात्मक मुद्दे भाग 1: साहित्य और समाज

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साहित्य ने समाज को समय-समय पर सही आईना दिखाया है और उसे उचित दिशा दी है।

"प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । "

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के उक्त कथन से स्पष्ट है कि साहित्य और समाज में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव का संबंध होता है। जैसे-जैसे सामाजिक संरचना उसके आचार-विचार व्यवहार और परंपराओं आदि में परिवर्तन होता जाता है, वैसे-वैसे साहित्य की दशा और दिशा भी परिवर्तित होती चली जाती है। साहित्य समाज का दर्पण है, अर्थात जिस प्रकार दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब उसकी पूरी वास्तविकता में दर्शाता है उसी प्रकार साहित्य में भी सामाजिक यथार्थ प्रतिबिम्बित होता है। किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति उस देश के साहित्य में पूर्ण रूप से परिलक्षित होती है।
हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार प्रेमचंद साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहते हैं। उनका यह कथन केवल राजनीति के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए सत्य है। साहित्यकार समाज का सजग नागरिक भी होता है और वह जब सामाजिक विडम्बनाओं से परिचित होता है तो वह सिर्फ उनका वर्णन ही नहीं करता अपितु अपने लेखन में उन्हें हल करने के सूत्र भी सुझाता है। साहित्यकारों ने सदैव अपनी लेखनी से विश्व का मार्गदर्शन किया है। साहित्य ही वह क्षेत्र है जो मनुष्य को उदात्त सामाजिक नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर करता है। साहित्य मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करता है। वह मनुष्य में सदाचरण, परमार्थ, करूणा, क्षमा, विश्वबन्धुत्व आदि अनेक संस्कारों को विकसित करता है। आदि कवि वाल्मीकि ने जो राम का आदर्श प्रस्तुत किया उससे भारतीय समाज आज भी आलोकित है।


प्रायः यह माना जाता है कि किसी समाज की सभ्यता और संस्कृति से परिचित होने के लिए उस समाज के साहित्य को पढ़ना उतना ही श्रेयस्कर होता है जितना वहाँ के इतिहास को पढ़ना। किसी भी के साहित्य में उस समाज की जिजीविषा अंतर्निहित होती है परंतु साहित्य का सत्य इतने में ही सीमित नहीं है। साहित्यकार सामाजिक यथार्थ को रचना में प्रतिबिम्बित ही नहीं करता वरन उसकी पुनर्रचना भी करता है। किसी साहित्यिक रचना में न केवल उस देश और समाज की वास्तविकताएँ परिलक्षित होती हैं अपितु साहित्यकार की आकांक्षाएं भी व्यक्त होती हैं। साहित्यकार अपनी इन्हीं आकांक्षाओं के माध्यम से आदर्श समाज का चित्र भी प्रस्तुत करता है। साहित्यकार अपनी रचना के माध्यम से पहले सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करता है और फिर विसंगतियों को दूर करने के अभियान का एक हिस्सा बनता है।


साहित्यकार समाज का चिंतनशील प्राणी होता है। वह बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ अपने चिंतन को समन्वित करके सामाजिक विकास को नया आयाम प्रदान करता है। चूँकि समाज निरंतर परिवर्तनकारी होता है इसीलिए साहित्य उस परिवर्तन को प्रथमतः अनुभव करके उससे जुड़कर उसे और अधिक सार्थक सिद्ध करता है। साहित्य रचना नितांत मानवीय कर्म है, यही वह क्षेत्र है जो हमें अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ सिद्ध करता है। पृथ्वी के समस्त प्राणियों में सुख-दुख, हानि-लाभ, उचित और अनुचित अनुभव करने की शक्ति तो होती है पर उसे कला और साहित्य के माध्यम से व्यक्त करने की क्षमता केवल मानव के पास है। एक साहित्यकार अपनी रचना में सामाजिक व्यथाओं को अनुभव करता है उसे अपनी संवेदनशीलता से ग्राहय बनाकर उसे अभिव्यक्त करता है।

समाज में समय के साथ व्याप्त कुरीतियों को दूर करने तथा नवीन सामाजिक परिवर्तनों को आयाम देने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसे अतीत से वर्तमान तक विभिन्न काल खंडों में हुए समाज सुधार में देखा जा सकता है, जैसे - प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति में महाकाव्यों (रामायण, महाभारत) का प्रभाव, बौद्ध साहित्य का भारत के साथ-साथ संपूर्ण विश्व पर प्रभाव, मध्यकालीन भारत में धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों में कबीर, रहीम, गुरूनानक के लेखन का प्रभाव। इसी प्रकार आधुनिक युग के निर्माण में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसे वैश्विक एवं भारतीय दोनों संदर्भों में देखा जा सकता है।


प्राचीन भारत में महाकाव्यों के द्वारा समाज में ऐसे मानकों का सृजन किया गया जिनके आधार पर एक आदर्श समाज का निर्माण किया जा सके। गीता में निष्काम कर्मवाद हो या रामायण में राम का चरित्र, यह व्यक्ति को जीवन में उच्च आदर्शों को धारण करने की प्रेरणा देता है और इससे समाज का निर्माण भी उन्हीं उच्च मानकों पर होता है। इसी प्रकार बौद्ध काल में धर्म में व्याप्त आडंबरों के कारण समाज में हिंसा और भेदभाव जैसी कुरीतियां व्याप्त थीं। जिनका समाधान बौद्ध चिंतन एवं साहित्य में किया गया। बौद्ध साहित्य ने न केवल भारतीय चिंतन को प्रभावित किया बल्कि संपूर्ण विश्व में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। अहिंसा का मूल्य हो या जातक कथाओं की शिक्षा यह वर्तमान में भी समाज को आयाम प्रदान करती है।

मध्यकालीन भारत में भक्ति और सूफी परंपरा में रचित साहित्य तत्कालीन समय में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों यथा-धार्मिक संकीर्णता, भेदभाव, आपसी अविश्वास एवं जातिवाद आदि की भर्त्सना करता है। उदाहरणस्वरूप कबीर, रहीम और गुरूनानक देव का लेखन सामाजिक समरसता, प्रेम, सद्भावना और आपसी विश्वास बढ़ाने की प्रेरणा देता है। जैसे कबीर लिखते हैं-

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ।

इसमें तत्कालीन समाज में व्याप्त आपसी कटुता को दूर करने तथा सद्भाव को बढ़ाने की बात कही गई है जो तत्कालीन समाज की सबसे बड़ी समस्या थी ।
आधुनिक युग की शुरूआत यूरोपीय पुनर्जागरण से आरंभ हुई जिसका प्रभाव आगे संपूर्ण विश्व में देखा गया। इस पुनर्जागरण ने सामाजिक मान्यताओं, कला, राजनीतिक और आर्थिक संरचना सहित जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया और मध्यकालीन जड़ता को दूर हुए एक नए युग का प्रारंभ किया। इस पुनजागरण में तत्कालीन साहित्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही उदाहरणस्वरूप दांते (डिवाइन कॉमेडी), प्रेज ऑफ फॉली, पैट्रार्क, बुकासियो, विलियम शेक्सपियर, मैकियावेली, जॉन मिल्टन आदि को लेखन मानवतावादी मूल्यों के विकास तथा धार्मिक आडम्बरों के प्रति जागृति और उसके पतन का वाहक बना जिससे एक नए युग का सूत्रपात हुआ।
आधुनिक भारत के निर्माण में समाज सुधार आंदोलनों में तत्कालीन साहित्य की भूमिका सबसे प्रभावी थी । वैदिक ग्रंथों का पुनर्परीक्षण और तत्कालीन मान्यताओं को चुनौती देने के लिए लेखन किया गया। आधुनिक भारत और विश्व को जिस एक व्यक्ति ने सबसे अधिक प्रभावित किया वे गांधी थे। गांधी स्वयं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र नाटक, टॉलस्टॉय के लेखन से प्रभावित थे जहां से उन्होंने सत्य और सत्याग्रह जैसे मूल्यों को जीवन में अपनाया था जिसका प्रभाव आगे संपूर्ण सदी पर पड़ा। इसी काल में महिला उत्थान तथा दलित चिंतन की भी एक साहित्य श्रृंखला रचित हुई जिसने इन वर्गों के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। अम्बेडकर का भारतीय जाति व्यवस्था संबंधी लेखन उदाहरण है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने समाज में बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव को कम करने और लिए लेखन किया। जैसे-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल 
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल ।। 
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन 
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।। 
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय 
निज शरीर उन्नति किये रहत मूढ़ सब कोय ।।

यह न केवल भारतीय साहित्य परम्परा की एक नई धारा बनी बल्कि समाज में निज भाषा एवं संस्कृति के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन का वाहक भी बनी।

प्रेमचन्द्र के लेखन में समाज के वंचित एवं शोषित वर्गों की भावनाओं का चित्रण किया गया है जिससे समाज में इनके प्रति होने वाली हिंसा एवं अमानवीय घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। निराला जी का लेखन समाज के हृदय स्पर्शी लेखन के लिए जाना जाता है, ये सभी रचनाएं समाज में व्याप्त कुरीतियों पर पुनः चिंतन करने को प्रेरित करती हैं।
नैतिक मूल्यों के विकास में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। आधुनिक शिक्षक, समाज में सुधार, व्यवहार का विकास, समस्या समाधान करने की क्षमता एवं सामाजिक व्यवस्था को संभालने की सही दृष्टिकोण विकसित करने के लिए साहित्य का उपयोग व्यापक तरीके से कर रहें हैं। सीमित रूप में यह कहा जा सकता है कि साहित्य केवल नैतिक शिक्षा को बढ़ावा दे रहा है शायद शिक्षक ने साहित्य के इस नैतिक कार्य को महसूस किया है जिससे उनकी चुनौतियां और बढ़ गई है। इसके परिणामस्वरूप नीति निर्माता साहित्य के माध्यम से शिक्षा एवं सांस्कृतिक जागरूकता पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहें हैं। अंत में साहित्यिक जागरूकता के माध्यम से नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक व्यवहार के बारे में हमारे संदेह को मिटाया जा सकता है।

जाहिर है, साहित्य और साहित्यिक रचनाएं हमारी मान्यताओं, संस्कृति सौंदर्य बोध, नैतिक भावनाओं को आकार देने और इसे विकसित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ये हमारे सदियों पुराने रीतिरीवाजों और उनकी प्रासंगिकता के महत्वपूर्ण धारकों में से एक रही हैं। इन दिनों शिक्षक नैतिक विकास के दृष्टिकोण स्वीकार करते हुए मानते है कि नैतिक सोच का विकास विभिन्न और विशिष्ट चरणों में विकसित होती है। यह दृष्टिकोण मुख्य रूप से किशोरावस्था से नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर केन्द्रित है जिसमें व्यक्ति अपने सामाजिक,व्यक्तिक एवं आंतरिक सौंदर्य के विकास के लिए निष्पक्षता, न्याय, समानता और मानवीय गरिमा जैसे मूल्यों के साथ अनुकूलन स्थापित करता है। यह छात्रों को नैतिक मुद्दों के बारे में अधिक तार्किक एवं सामाजिक चिंतन के विकास में मदद करता है। शिक्षक क्रमिक सोपानों के माध्यम से छात्रों में अधिक जटिल नैतिक तर्क क्षमता को विकसित करने का प्रयास करते हैं।

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