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उत्तरप्रदेश की नाट्यकला: भाग 2- रामलीला

रामलीला उत्तरप्रदेश के सबसे प्राचीन नाट्य विधाओं में से एक है। इसकी शुरुआत तो अवध क्षेत्र से हुई पर धीरे-धीरे यह प्रदेश ही नहीं पूरे देश में और यह तक की विदेशों में भी फैल गई। रामलीला में भगवान राम के जीवन को नाटक के माध्यम से रंग-मंच पर प्रदर्शित करते हैं। दशहरे के 10 से 12 दिन पहले शुरू होने वाली यह रामलीला दशहरे तक चलती है और फिर विजय दशमी के दिन रावण का वध करने के पश्चात समाप्त होती है। प्रदेश के लगभग हर छोटे बड़े शहरों में मेले का आयोजन किया जाता है।

रामलीला को अवधी भाषा में या फिर क्षेत्रीय भाषा में रंगमंचित किया जाता है। 2008 में यूनेस्को ने रामलीला को मानवता को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत यानी Intangible Cultural Heritage में जगह दी थी। रामलीला का प्रदर्शन साउथ ईस्ट देशों जैसे इंडोनेशिया, कंबोडिया, थाईलैंड, और म्यांमार जैसे देशों में भी किया जाता है। इन रामलीलाओं को इन साउथ ईस्ट देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे इंडोनेशिया में काकाविन रामायण नाम से राम लीला को परफॉर्म किया जाता है। यह काकाविन रामायण प्राचीन जावा रामायण के अनुसार बनाई गई है जिसे इंडोनेशिया के लोकल कल्चर के हिसाब से ढाला गया है लेकिन इसकी Theme वही की वही है। इसी तरह से थाईलैंड में रामलीला को रामाकिएन के नाम से किया जाता है।

रामाकिएन को थाईलैंड में राष्ट्रीय महाकाव्य यानी National Epic का दर्जा मिला है। रामकिएन प्राचीन वाल्मीकि रामायण पर आधारित नाट्य होता है। कंबोडिया में भगवान राम को Phreah Ream तथा माता सीता को Neang Seda के नाम से जाता जाता है। इसी तरह से म्यांमार, लाओस आदि देशों में भी रामायण के अपने-अपने संस्करणों को रामलीला के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है पर इनमे सबसे ज्यादा प्रसिद्ध मुखौटा रामलीला और छाया रामलीला है। दक्षिण पूर्वी देशों में रामलीला 10वीं से 12वीं शताब्दी में भारतीय राजाओं के साथ पहुंची। यह वो समय था जब इन देशों में हिन्दू धर्म तेजी से फल-फूल रहा था और चोल राजाओं का वर्चस्व दक्षिण पूर्वी देशों पर था। 

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