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निबंधात्मक मुद्दे भाग 3: भारत में संघवाद की विकास यात्रा (1947 से वर्तमान तक)

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भारत में संघवाद की विकास यात्राः 1947 से वर्तमान तक


"देशीय सरकारों में एकता और सहयोग अनिवार्य तत्व हैं।" - सरदार वल्लभभाई पटेल

एक अखंड भारत के स्वप्न के साथ स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाया गया था जिसमें देशी सरकारों में एकता और सहयोग की अपेक्षा की गई थी। हालांकि कुछ दशक पूर्व जब हम संघीय संरचना की बात करते थे तो उसका एक आयामी चित्र उभरता था जिसमें केंद्र शीर्ष पर होता था और राज्य अधीनस्थ। पूर्ववर्ती योजना आयोग की कार्यपद्धति भी ऐसी ही थी किंतु विगत कुछ दशकों, विशेषरूप से 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से भारतीय संघवाद में परिवर्तन देखा जा रहा है, नीति आयोग के निर्माण के बाद भारतीय संघवाद अब सहकारी से प्रतिस्पर्धात्मकता की ओर बढ़ता दिख रहा है। भारतीय संघवाद की विकासयात्रा, परिवर्तनों तथा चुनौतियों पर आगे विस्तृत चर्चा की गई है। 
सबसे पहले समझते हैं कि संघवाद की अवधारणा क्या है और भारतीय संविधान इसपर क्या कहता है ?

संघवाद (Federalism) शब्द लैटिन शब्द ' Foedus' से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है एक प्रकार का समझौता या अनुबंध। वास्तव में संघ दो तरह की सरकारों के बीच सत्ता साझा करने और उनके संबंधित क्षेत्रों को नियंत्रित करने हेतु एक समझौता है। भारत की स्थिति में भी संघवाद को केंद्रीय और राज्य सरकारों के मध्य अधिकारों शक्तियों और कार्यों के वितरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।


भारतीय संविधान का संघीय चरित्र इसकी प्रमुख विशेषताओं में से एक है भारत में केंद्रीय और राज्य सरकारों की उपस्थिति और कार्यों का स्पष्ट विभाजन संघात्मक ढांचे का आधार है। हालांकि भारतीय संविधान में कहीं भी संघवाद (फेडरेशन) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि इसके स्थान पर भारत को 'राज्यों के संघ' (यूनियन ) के रूप में संबोधित किया गया है। जिसका तात्पर्य है कि भारतीय राज्यों को संघ से पृथक होने को शक्ति नहीं है। भारत की संघीय विशेषताओं को लेकर विद्वानों की कई राय है कुछ भारत को अर्धसंघीय मानते हैं तो कुछ अद्वितीय संघ । सर्वोच्च न्यायालय ने एस आर बोम्मई वाद में संघीय ढांचे को भारतीय संविधान का आधारभूत लक्षण माना था।

केंद्र और राज्य सरकारों तथा राज्य सरकारों के बीच आपसी संबंधों की प्रकृति के आधार पर संघवाद को दो भागों में विभाजित किया जाता है, सहकारी संघवाद और प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद ।

सहकारी संघवाद में केंद्र व राज्य तथा राज्य आपस में एक-दूसरे के साथ क्षैतिज संबंध स्थापित करते हुए एक-दूसरे के सहयोग से अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं। सहकारी संघवाद में श्रेष्ठता की भावना की बजाय समन्वित प्रयासों द्वारा जनता व देश के विकास पर बल दिया जाता है।


प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के मध्य संबंध लंबवत होते हैं जबकि राज्य सरकारों के मध्य संबंध क्षैतिज होते हैं। इस अवधारणा में आपसी प्रतिस्पर्धा द्वारा अपने राज्य के अधिकतम विकास पर बल दिया जाता है, सभी राज्य निवेश आकर्षित करने के लिये एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं, ताकि विकास संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके। केंद्र सरकार भी राज्यों को प्रेरित कर विकास का कारक बनती है। इस अवधारणा में एक अन्य महत्वपूर्ण बात जनता के बीच छवि निर्माण करने के लिए प्रतिस्पर्धी विकास करना भी है। प्रतिस्पर्धा संघवाद की अवधारणा को देश में 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के बाद से महत्त्व प्राप्त हुआ और वर्तमान में इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के आरंभिक दशकों में संघवाद के प्रति दृष्टिकोण को प्रदर्शित करने वाली संस्था थी योजना आयोग। योजना आयोग ने विकास की राह दिखाने के लिए वित्तीय साधनों को प्राथमिक माना तथा पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास गतिविधियों को क्रियान्वित किया इस माडल में राज्यों की निर्णयन में भागीदारी न के बराबर थी केंद्र सरकार देश में विकास गतिविधियों का निर्णय स्वयं करती थी। धन का । इसका समग्र परिणाम यह हुआ कि भारत का संघीय चरित्र केंद्र की ओर अत्यधिक झुका रहा। कुछ ऐसी ही दशा राजनीतिक और विधिक शक्तियों के प्रयोग में भी देखी गई जहां शक्ति केन्द्रण  केंद्र के पास था राज्य सरकारों को बर्खास्त करना तथा राष्ट्रपति शासन का प्रयोग आम बात थीं। 


1991 के आर्थिक सुधारों के बाद राज्यों को की मांग उठने लगी। इस दिशा में देश कुछ परिवर्तन और  विकास प्रक्रिया, निर्णयन में राज्य को भागीदार बनाने तथा सहयोगात्मक संघवाद की ओर तो बढ़ा किंतु संरचनात्मक ढांचे में परिवर्तन न होने से इस ओर विकास कम हुआ। हालांकि बढ़ती जन जागृति के कारण राजनीतिक हस्तक्षेपों में कमी आई साथ ही गठबंधन सरकारों के दौर में राज्यों का महत्व बढ़ गया। 2015 में नीति आयोग के निर्माण के बाद भारतीय संघवाद में आमूलचूल परिवर्तन देखा जा रहा है। नीति आयोग अपने पूर्ववर्ती योजना आयोग से भिन्न मॉडल पर कार्य कर रहा है, यह वित्त प्रदाता के स्थान पर एक थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है और निर्णयन प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जा रहा है।


राज्यों और केंद्र तथा राज्यों के आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय परिषदें कार्य कर रही थी, नीति आयोग ने इसे नई गति दी। वर्तमान नियोजन मॉडल में राज्यों को नीति निर्माण में शामिल कर के न केवल उनके महत्व व विश्वास को बढ़ाया गया बल्कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप प्रभावी नीति निर्माण भी संभव हो सका है। आर्थिक संसाधनों में वृद्धि की वित्त आयोग की अनुशंसा को लागू कर उन्हें अधिक सक्षम बनाया गया है। केंद्र सरकार न केवल सहयोगी भूमिका में है बल्कि अवसंरचना विकास जैसे कार्यों द्वारा राज्यों के विकास को गति दे रही है। संघवाद में एक नई प्रवृत्ति के रूप में प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ावा दिया जा रहा है नीति आयोग द्वारा जारी विभिन्न रिपोर्टों में राज्यों को रैंकिंग दी जा रही है जैसे सतत विकास, स्वच्छ भारत और आकांक्षी जिला रैंकिंग आदि। यह न केवल राज्यों में प्रर्तिस्पर्धा की भावना बढ़ा रहा है बल्कि लोग भी अपनी सरकारों के कार्यों का मूल्यांकन कर रहे हैं जिससे सरकारों पर कार्य करने का दबाव बढ़ रहा है। अवसंरचना विकास, निवेश बढ़ाने, रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने को लेकर राज्यों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा राष्ट्र के तीव्र विकास में अहम भूमिका निभा रही है।


हालांकि भारतीय संघवाद में विभिन्न चुनौतियां भी विद्यमान हैं जैसे, क्षेत्रवाद की समस्या भारत में संघवाद के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है उत्तर पूर्व के राज्य हों या दक्षिण भारतीय राज्य क्षेत्रवाद एक बड़ी चुनौती है। शक्तियों के बँटवारे के कई प्रावधान हैं जिनमें केंद्र को वरीयता दी गई है जो कि राज्यों के मध्य केंद्रीकरण का भय उत्पन्न करता है इसमें अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की भर्ती तथा नियंत्रण केंद्र सरकार द्वारा किया जाना, अनुच्छेद 368 के प्रावधान तथा राज्यपाल का कार्यालय संवेदनशील मुद्दे हैं।


इसके अलावा भारत में भाषाई विवादों के कारण संविधान की संघीय भावना को ठेस पहुँचती है। भारत में संवैधानिक रूप से स्वीकृत 22 भाषाएँ हैं। परंतु हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के मुद्दे पर प्रायः विवाद होते हैं जैसा कि वर्तमान में देखा जा सकता है।साथ ही, संघवाद से संबंधित कुछ अन्य मुद्दे भी हैं कि जैसे- राज्यों के बीच सीमा विवाद (उदाहरण- असम और मणिपुर इत्यादि), नदी जल विवाद के मुद्दे, राष्ट्रपति शासन इत्यादि । हालांकि इन मुद्दों को सम्बोधित करने के लिए विभिन्न प्रयास भी किए गए हैं जैसे- अंतर्राज्यीय परिषद, जल अधिकरण, क्षेत्रीय परिषदें और विभिन्न समितियां जैसे- सरकारिया आयोग, पुंछी आयोग इत्यादि। फिर भी संघवाद के समक्ष पारंपरिक मुद्दों के साथ-साथ कुछ नवीन प्रवृत्तियां / मुद्दे उत्पन्न हो रहे हैं। जिन्हें सांविधानिक उद्देश्यों के अधीन सम्बोधित करने की आवश्यकता है।


भारत सरकार का लक्ष्य देश को वित्तीय वर्ष 2024-2025 तक 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाना है इसके अलावा आत्मनिर्भर भारत के स्वप्न को पूरा करने लिए भी भारत में सहकारी तथा प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद की आवश्यकता है। इसमें जो भी चुनौतियां हैं उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। विशेषरूप से केंद्र सरकार को संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों का विवेकपूर्ण प्रयोग करने तथा राज्यों को विश्वास में लेकर कार्य करने की आवश्यकता है।

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