बड़ी खबरें

ब्रिक्स सम्मेलन के लिए रूस के कजान पहुंचे पीएम मोदी, स्वागत के लिए एयरपोर्ट पर जुटे लोग 3 घंटे पहले भारत सरकार सिखाएगी डिजिटल अरेस्ट से बचने के तरीके, स्टूडेंट्स, कर्मचारियों-अधिकारियों को भी दी जाएगी साइबर सुरक्षा की ट्रेनिंग 3 घंटे पहले सीएम योगी आज डायबिटिक सेंटर समेत कई परियोजनाओं की देंगे सौगात, SGPGI लखनऊ में 4 नई परियोजनाओं का करेंगे शुभारंभ 3 घंटे पहले मिल्कीपुर उपचुनाव मामले में बढ़ी सरगर्मी, लखनऊ में गोरखनाथ बाबा ने CM योगी से की मुलाकात 3 घंटे पहले अमेरिका को हथियार बेचने वाला पहला राज्य होगा यूपी, 100 साल बाद यहां से फिर निकलेगी 1.1 KG वजनी वेब्ले-455 रिवॉल्वर 3 घंटे पहले यूपी के बिजली उपभोक्ताओं के लिए खुशखबरी, नया कनेक्शन लेना या फिर से जुड़वाना हुआ सस्ता, 18 प्रतिशत घटीं दरें 3 घंटे पहले भारत के खिलाफ दूसरे टेस्ट से भी बाहर हुए केन विलियम्सन, सीरीज में 1-0 से आगे है कीवी टीम 3 घंटे पहले यूपी आंगनवाड़ी में 497 पदों पर भर्ती निकली, 12वीं पास को मौका, 35 साल है एज लिमिट 3 घंटे पहले थर्मल पावर कॉपरेशन में निकली भर्ती, 40 हजार रुपये वेतन के साथ मिलेगी आवास और अन्य सुविधाएं 3 घंटे पहले यूपीएससी सीडीएस का अंतिम परिणाम जारी, अंतिम चयन सूची में 237 अभ्यर्थियों के नाम 3 घंटे पहले

एक महान योद्धा के जीवन की पीड़ा और संघर्ष का अद्भुत चित्रण...

 रश्मिरथी के द्ववतीय सर्ग में आपका स्वागत है। आज हम आपको हिंदी साहित्य के ऐसे युगपुरुष की रचना के संसार में ले चलेंगे, जिन्होंने अपने शब्दों से वीर रस का विशाल चित्रांकन किया है। जी हां, हम बात कर रहे हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की महाकवि 'रश्मिरथी' की। इस काव्य में दिनकर जी ने महाभारत के दास्तां को एक नई दृष्टि से पेश किया है, जिसमें कवि ने कर्ण के वीर और कठिन जीवन को प्रतिबिम्बित किया है। तो आइए इस काव्य की रूप-रश्मि में डूबते हैं।

 शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

 

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

 

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।

 

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।

 

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

कल्पना कीजिए, एक ऐसा तपोवन जहाँ यज्ञ की पवित्र अग्नि और युद्ध की वीरता एक साथ बसती है। यहाँ तपस्या और तलवार दोनों का संगम होता है, और इस अद्भुत संगम का प्रतीक हैं महान ऋषि परशुराम। इस कविता में हम एक ऐसे मुनि की कहानी से रूबरू होते हैं, जिनके पास वेदों का ज्ञान और हाथों में कठोर परशु है। आइए उस अद्वितीय तपस्वी और योद्धा की दुनिया में, जहाँ वीरता और तपस्या का अनोखा मेल है!

 

श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?

 

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?

 

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।

 

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

 

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

 

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।

गुरु-शिष्य के रिश्ते की गहराई और कर्ण की भक्ति को अद्भुत रूप से चित्रित किया गया है। कर्ण, अपने गुरु परशुराम की सेवा में इतना डूबा हुआ है कि उनकी हर छोटी से छोटी जरूरत का ख्याल रखता है। गुरु की वृद्ध काया और कठोर तप के बावजूद, कर्ण उनकी ममता और स्नेह को महसूस करता है। इस वीडियो में हम आपको इस अनोखी गुरु-शिष्य परंपरा की यात्रा पर ले चलेंगे, जहाँ कर्ण की निष्ठा और परशुराम की कठोर शिक्षाओं का संगम देखने को मिलता है। तैयार हो जाइए इस भावनात्मक सफर के लिए!

 

कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

 

'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,

और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।

 

'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।

 

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

 

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

 

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?

जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।

 

इस अंश में हम जानेंगे कि कैसे ब्राह्मण और राजा के बीच के शक्ति-संतुलन को गहराई से उजागर किया गया है। जहाँ राजा तलवार और युद्ध के बल पर अपनी सत्ता बढ़ाता है, वहीं ब्राह्मण ज्ञान और धर्म के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन करता है। लेकिन क्या होता है जब शक्ति अहंकार में बदल जाती है और ब्राह्मण की आवाज अनसुनी कर दी जाती है? इस वीडियो में हम इस कविता के माध्यम से उन सवालों का जवाब तलाशेंगे, जहाँ सत्ता, धर्म और समाज के बीच के जटिल संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे।

 

खड्ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,

इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।

और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,

राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

 

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,

डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।

औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,

परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

 

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,

और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।

रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,

बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

 

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,

भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।

ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,

और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

 

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,

ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।

कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,

धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

 

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?

यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।

चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,

जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

 

 

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

 

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

 

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

 

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्ग की भाषा को।

 

इस अंश में समाज के उस दर्द को अभिव्यक्त किया गया है, जहाँ ज्ञान और तपस्वियों का अपमान हो रहा है, और तलवार और सत्ता की भाषा ही सबकुछ बन गई है। जब तक भोग और लोभ से भरे राजा समाज के नेता बने रहेंगे, तब तक ज्ञान, त्याग और चरित्र को वह स्थान नहीं मिल पाएगा, जो उन्हें मिलना चाहिए। 

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

 

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

 

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

 

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्ग की भाषा को।

 

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,

ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्ग धरो,

हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

 

'नित्य कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्ग महाभयकारी है,

इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,

जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

 

यहां कर्ण के भीतर की वेदना और गुरु परशुराम के प्रति आदर को व्यक्त किया गया है, जो शिष्य और गुरु के रिश्ते की जटिलता को उजागर करती है। कर्ण, जो स्वयं को एक 'ब्राह्मणकुमार' के रूप में प्रस्तुत कर परशुराम से शिक्षा प्राप्त करता है, अंततः अपने छल से ग्लानि और गुरु के प्रेम से संघर्ष करता है। इस वीडियो में हम इस गहरी भावनात्मक स्थिति पर चर्चा करेंगे—जहाँ वीरता और सत्य के बीच की लड़ाई, कर्ण के मनोभावों को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की गई है। क्या कर्ण दोषी था, या परिस्थितियों ने उसे इस राह पर चलने के लिए मजबूर किया?

 

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है,

मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।

सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसी को आने दो,

विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।

 

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,

सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।

'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,

दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

 

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,

परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?

पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,

तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

 

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,

एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।

निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,

तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?

 

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,

मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।

गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?

और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

 

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,

पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।

और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,

एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

 

इस भाग में कर्ण के जीवन की पीड़ा और संघर्ष का चित्रण किया गया है, जहाँ जाति और कुल की बेड़ियों में जकड़ा यह महान योद्धा खुद को अपने गुणों से परे एक अलग पहचान के साथ संघर्ष करता हुआ पाता है। कविता के इस अंश में कर्ण की सहनशक्ति और दृढ़ संकल्प को दर्शाते हुए एक विषकीट का प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है, जो उसे अंदर से कुतरता है।

अन्य ख़बरें

संबंधित खबरें