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जैसे ही बंगाल की गर्मियों की तपती धूप ठंडी हवाओं में बदलने लगती है, माँ दुर्गा के स्वागत का उत्साह हर दिल में जाग उठता है। दुर्गा पूजा न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर और भारतीय राष्ट्रवाद से भी गहराई से जुड़ा हुआ पर्व है। आज हम इसी पर्व की रोमांचक और प्रेरणादायक कहानी से रूबरू होंगे।
क्लाइव और कंपनी पूजा: दुर्गा पूजा की शुरुआत का मिथक-
1757 में प्लासी के युद्ध के बाद, जब रॉबर्ट क्लाइव ने नवाब सिराज-उद-दौला को हराकर बंगाल पर ब्रिटिश शासन की नींव रखी, तबसे दुर्गा पूजा से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी चलती आ रही है। कहते हैं, क्लाइव ने अपनी जीत का श्रेय भगवान को दिया और एक बड़े धार्मिक आयोजन की योजना बनाई। चर्च के नष्ट हो जाने के बाद, नबकिशन देब नामक एक जमींदार ने क्लाइव को अपने घर पर माँ दुर्गा की पूजा के लिए आमंत्रित किया। इस पूजा को "कंपनी पूजा" के नाम से जाना गया और इसे कोलकाता की पहली दुर्गा पूजा माना जाता है। हालांकि, इस कहानी के ऐतिहासिक प्रमाण कम हैं, लेकिन यह उस दौर में ब्रिटिश अधिकारियों और बंगाली जमींदारों के बीच के संबंधों की झलक जरूर दिखाती है।
जमींदारों का प्रभाव और भव्य आयोजन-
ब्रिटिश शासन के साथ ही बंगाल में कई सामाजिक और आर्थिक बदलाव आए। जमींदार वर्ग का प्रभाव बढ़ने लगा और उनके पास अत्यधिक संपत्ति एकत्रित हो गई। इस नवधनाढ्य वर्ग के लिए दुर्गा पूजा केवल आस्था का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह उनका रुतबा दिखाने का एक साधन भी बन गया। सोने से जड़ी मूर्तियों और लखनऊ- दिल्ली से बुलाए गए नर्तकियों के साथ-साथ अंग्रेज अधिकारियों को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाना आम हो गया। यह पर्व अमीरों की शान का प्रतीक बन गया था, जहाँ हर कोई सबसे भव्य पूजा का आयोजन करने की होड़ में रहता था।
राष्ट्रवादी भावना का उदय और माँ दुर्गा का प्रतीकात्मक महत्व-
19वीं सदी के अंत तक बंगाल में राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रसार होने लगा। 1882 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास 'आनंद मठ' प्रकाशित हुआ, जिसने "वंदे मातरम" को एक लोकप्रिय नारा बना दिया। माँ दुर्गा को राष्ट्र की रक्षा करने वाली देवी के रूप में देखा जाने लगा। खासकर 1905 में बंगाल विभाजन के समय, दुर्गा पूजा ने एक नई भूमिका निभाई। वंदे मातरम के नारों के साथ राष्ट्रवादी आंदोलन का समर्थन किया गया और दुर्गा पूजा के दौरान स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों का जोरशोर से प्रचार हुआ। ब्रिटिश अधिकारियों के लिए यह समारोह अब वैसा स्वागत योग्य नहीं रह गया था।
सर्वजनिन पूजा: समाज के हर वर्ग के लिए खुला पर्व-
1920 के दशक तक दुर्गा पूजा अमीरों की पूजा से निकलकर सर्वजनिन पर्व बन गई। 1926 में कोलकाता के मानिकतला में पहली बार सार्वजनिक पूजा का आयोजन हुआ, जो जाति, वर्ग और समाज की दीवारों को तोड़कर सभी के लिए खुली थी। पंडाल संस्कृति की शुरुआत यहीं से हुई, जहाँ सामूहिक पूजा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन हुआ। इसने दुर्गा पूजा को समाज के हर वर्ग का पर्व बना दिया, जहाँ हर कोई मिलकर माँ दुर्गा की आराधना कर सकता था।
दुर्गा पूजा: सांस्कृतिक धरोहर और स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक-
दुर्गा पूजा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर, सामाजिक संरचना और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक भी है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि कैसे धार्मिक आस्था, सामाजिक बदलाव और राष्ट्रवादी आंदोलन एक साथ आकर बंगाल की मिट्टी को समृद्ध बनाते हैं।
आधुनिक दुर्गा पूजा: समाज और संस्कृति का संगम-
आज, दुर्गा पूजा न केवल बंगाल में बल्कि पूरे भारत और विश्वभर में मनाई जाती है। यह पर्व भक्ति, उत्सव और आनंद का प्रतीक बन गया है, जहाँ कला, संगीत, नृत्य, और संस्कृति का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। पंडालों की भव्यता, माँ दुर्गा की मूर्तियों की अद्वितीय सुंदरता, और समाज के हर वर्ग की भागीदारी इस पर्व को और भी खास बना देती है।
सीनियर प्रोडूसर
Published : 10 October, 2024, 6:40 pm
Author Info : केशरी पाण्डेय 'बातें यूपी में' में सीनियर प्रोडूसर के रूप में काम कर रहे हैं। डिजिटल पत्रकारिता के क्षेत्र में आपके पास करीब 5 साल का अनुभव है। आप समस...