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1858 में कुंभ मेला और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अनसुना अध्याय...

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1858 में संगम की पवित्र भूमि पर आयोजित कुंभ मेला सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं था, बल्कि यह भारत की आज़ादी की लड़ाई का गवाह बना। इस बार कुंभ में साधारण संत नहीं, बल्कि उन क्रांतिकारियों की एक बड़ी टोली शामिल थी, जिन्होंने अपनी पहचान साधु-संतों के वेश में छिपाई थी। अंग्रेजों के खिलाफ यह संघर्ष इतिहास में एक अनमोल गाथा बनकर समाहित हो गया।

साधु-संतों का क्रांतिकारी संघर्ष

कुंभ मेले के दौरान प्रयाग की हवाओं में स्वतंत्रता का जो जोश था, वह अंग्रेजों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका था। अंग्रेजों ने मेला स्थल पर पहुंचने वाले सभी रास्तों को बंद कर दिया था। रेलगाड़ियों के पहिए रुकवाए गए और बसों के रास्ते बंद कर दिए गए, लेकिन फिर भी इन आस्थावान क्रांतिकारियों को रोकने में अंग्रेज नाकाम रहे। इन क्रांतिकारियों में 745 नागा साधु शामिल थे, जिन्होंने अपनी जान की आहुति दी, खासकर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के लिए।

रानी लक्ष्मीबाई का संघर्ष

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता ने इतिहास को एक नई दिशा दी। प्रयाग में एक पंडे के घर पर छुपी रानी को अंग्रेजों ने पकड़ लिया, और पंडे को फांसी पर चढ़ा दिया। इसके बाद रानी ने ग्वालियर की ओर रुख किया, जहां उन्हें एक और बड़ी मुठभेड़ का सामना करना पड़ा। एक अंग्रेज़ सिपाही ने रानी को गंभीर रूप से घायल कर दिया, लेकिन फिर भी उनका संघर्ष जारी रहा। अंततः एक सैनिक ने उनकी छाती पर गोली दाग दी और रानी घोड़े के पीठ पर गिर गईं।

गंगादास और नागा साधुओं का साहसिक प्रतिरोध

रानी लक्ष्मीबाई के अंतिम संस्कार के लिए संत गंगादास की शाला में पहुंचे, जहां सैकड़ों नागा साधु थे। अंग्रेजों के सैनिकों की धमक सुनकर गंगादास ने आदेश दिया कि अंग्रेजों को रोका जाए ताकि रानी का अंतिम संस्कार हो सके। साधुओं ने तलवारों, भालों और तोपों का सहारा लिया, और दो हजार साधुओं ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया। एक तोप, जिसे अकबर ने गंगादास के गुरु को दी थी, का इस्तेमाल कर कई अंग्रेजों को मार गिराया।

745 नागा साधुओं की शहादत

गंगादास और उनके नागा साधु ग्वालियर की ओर बढ़े, लेकिन जब वे शाला लौटे, तो वहां एक भयानक दृश्य था। 745 साधु, जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी, उनके शव नदी किनारे पड़े हुए थे। आज भी बाबा गंगादास की शाला में इन वीर साधुओं की श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। उनके शस्त्रों की पूजा होती है और उनकी वीरता की यादें हर साल हमें प्रेरित करती हैं।

साधु समुदाय की अविस्मरणीय कुर्बानी

इस संघर्ष में सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई ने नहीं, बल्कि एक पूरा साधु समुदाय अपनी धरती और अपनी पहचान के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया। उनकी वीरता और बलिदान आज भी भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है।

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