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जाति का चश्मा बदल देगा विकास का नक्शा! बढ़ेगा प्रतिनिधित्व या मतभेद?

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देश में एक ऐतिहासिक कदम के तहत केंद्र सरकार ने जाति गणना को मंजूरी दे दी है। वर्षों से लंबित इस मांग के पूरा होने के साथ ही भारत में राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक ढांचे में बड़े बदलावों की संभावना जताई जा रही है। विश्लेषकों का मानना है कि इन आंकड़ों के सामने आने के बाद न केवल आरक्षण व्यवस्था की 50% सीमा पर पुनर्विचार होगा, बल्कि संसद और विधानसभाओं की सामाजिक रचना में भी बड़ा फेरबदल देखने को मिल सकता है।

आरक्षण की 50% सीमा पर आ सकता है पुनर्विचार

1992 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की थी। अब जाति गणना के आंकड़ों के सामने आने के बाद ओबीसी वर्ग अपनी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण में हिस्सेदारी की मांग कर सकता है। इससे सरकार पर इस सीमा को खत्म करने का दबाव बढ़ेगा। यदि यह सीमा टूटी, तो सामाजिक न्याय की नई बहस खड़ी हो सकती है।

बदलेगी संसद और विधानसभाओं की सामाजिक तस्वीर

जातीय आंकड़े राजनीतिक दलों के समीकरणों को भी प्रभावित करेंगे। जिन जातियों की संख्या अधिक होगी, वे संगठित होकर राजनीतिक दबाव समूह बन सकती हैं। इससे उन्हें चुनाव में ज्यादा टिकट और भागीदारी मिलेगी।
मंडल आयोग के समय जिस तरह सामाजिक न्याय की राजनीति ने कांग्रेस को पीछे धकेला और सपा, राजद, जदयू जैसे दलों को उभार दिया, वैसा ही परिदृश्य फिर बन सकता है।

पता चलेगा कौन सी जाति कितनी संख्या में है

जाति गणना से यह स्पष्ट होगा कि देश में वास्तव में किस जाति की कितनी आबादी है। अब तक ओबीसी की आबादी का अनुमान 1931 की जनगणना या मंडल आयोग की रिपोर्ट पर आधारित रहा है, जिसमें यह आंकड़ा 52% के आसपास बताया गया था। बिहार में हाल ही हुए जातीय सर्वेक्षण में ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग की कुल जनसंख्या 63% से अधिक पाई गई। यदि यही ट्रेंड राष्ट्रीय स्तर पर दोहराया गया, तो नीति निर्धारण में बड़े बदलाव संभव हैं।

शिक्षा और नौकरियों में भी दिखेगा असर

आरक्षण की सीमा बढ़ने पर इसका असर स्कूल, कॉलेज और सरकारी नौकरियों में भी नजर आएगा। अभी तक कई पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम है। अगर नई व्यवस्था लागू हुई, तो उन वर्गों को शिक्षा और रोजगार में अधिक प्रतिनिधित्व मिलने की संभावना है। इससे शैक्षिक संस्थानों और सरकारी विभागों का सामाजिक समीकरण बदल सकता है।

सामाजिक एकता पर मंडरा सकता है खतरा

हालांकि जाति गणना से जुड़े लाभों के साथ सामाजिक विभाजन की आशंका भी जुड़ी हुई है। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने पर देशभर में विरोध-प्रदर्शन, आत्मदाह और हिंसा की घटनाएं देखी गई थीं। अब एक बार फिर जातीय आंकड़ों के सामने आने के बाद जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा, असंतोष और तनाव उत्पन्न हो सकते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इन आंकड़ों का राजनीतिक दुरुपयोग हुआ, तो यह देश की सामाजिक समरसता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।

संतुलन और संवेदनशीलता होगी जरूरी

जाति गणना एक ऐसा कदम है जो सामाजिक न्याय के नए अध्याय को जन्म दे सकता है, लेकिन इसके साथ-साथ यह एक नाजुक सामाजिक संतुलन को भी चुनौती देता है। ऐसे में आवश्यकता होगी कि सरकार और सभी राजनीतिक दल सजगता, पारदर्शिता और समावेशी दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ें, ताकि यह ऐतिहासिक कदम सशक्तिकरण का माध्यम बने, न कि विभाजन का कारण

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