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अजमेर दरगाह है या मंदिर? कोर्ट में सुनवाई को मंजूरी...ये सियासत है या फिर आस्था!

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अजमेर दरगाह को लेकर विवाद एक नए मोड़ पर पहुंच गया है। हाल ही में सिविल अदालत ने दरगाह परिसर में संकट मोचन महादेव मंदिर के अस्तित्व से जुड़ी याचिका पर सुनवाई के लिए सहमति जताई है। यह याचिका हिंदू सेवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता द्वारा दायर की गई थी, जिसमें ऐतिहासिक महत्व के इस दावे की जांच की मांग की गई है। अदालत ने मामले की गंभीरता को देखते हुए सभी पक्षों को नोटिस जारी करते हुए 20 दिसंबर को अगली सुनवाई की तारीख तय की है।

राजनीति के केंद्र में दरगाह विवाद-

यह मामला सियासी रंग पकड़ चुका है। मथुरा, वाराणसी और धार में ऐसे ही विवादों के बीच अजमेर दरगाह पर यह याचिका नया अध्याय जोड़ती है। भाजपा ने इस सर्वे को ऐतिहासिक सच्चाई की खोज बताया, तो विपक्ष ने इसे धार्मिक विवाद को हवा देने का प्रयास करार दिया।

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का बयान-

गिरिराज सिंह ने अदालत के फैसले का समर्थन करते हुए कहा, "मुगलों ने भारत में कई मंदिर ध्वस्त किए। अगर नेहरू ने 1947 में इसे रोका होता, तो आज यह स्थिति न होती।" उन्होंने पूजा स्थल अधिनियम पर सवाल उठाते हुए इसे कांग्रेस की तुष्टिकरण राजनीति का परिणाम बताया।

पूजा स्थल अधिनियम का कानूनी पहलू-

1991 में बने पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम के अनुसार, धार्मिक स्थलों की स्थिति को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बनाए रखना अनिवार्य है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मामले में सर्वेक्षण की अनुमति दी थी। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने यह कहते हुए निर्णय दिया था कि अधिनियम किसी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र की जांच से नहीं रोकता।

विपक्ष का तीखा विरोध-

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने इस फैसले पर निराशा जताते हुए कहा, "अजमेर दरगाह में शिव मंदिर... हम देश को कहां ले जा रहे हैं? और क्यों? सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए।" पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने इस मामले को सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाला बताया। उन्होंने इसे भानुमति का पिटारा" करार देते हुए कहा कि इससे धार्मिक विवाद बढ़ेंगे।

ओवैसी ने क्या कहा?

एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम का पालन संविधान की मर्यादा बनाए रखने के लिए जरूरी है। उन्होंने ऐसे मुद्दों को उठाने को राजनीतिक एजेंडा बताया।

दरगाह का ऐतिहासिक महत्व-

अजमेर दरगाह भारत के सबसे पवित्र धार्मिक स्थलों में से एक है। यह सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का अंतिम resting place है, जिन्होंने 12वीं शताब्दी में ईरान से आकर इसे अपना निवास बनाया। मुगल सम्राट अकबर और शाहजहां ने इस दरगाह के विकास में अहम भूमिका निभाई थी।

क्या बढ़ेगा धार्मिक विवाद?

विशेषज्ञों का मानना है कि इस मुद्दे से धार्मिक ध्रुवीकरण का खतरा है। भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को इन विवादों से चुनौती मिल सकती है। दरगाह के नीचे मंदिर होने के दावे पर सत्यता जांचने के लिए सर्वेक्षण की अनुमति देना एक बड़ा कदम है, लेकिन इसके प्रभाव को लेकर चिंताएं गहराती जा रही हैं।

क्या है आगे की राह?

इस मामले में अगली सुनवाई 20 दिसंबर को होगी। इस बीच, राजनीतिक बयानबाजी और जनभावनाओं के बीच संतुलन साधना चुनौतीपूर्ण होगा। क्या अदालत का फैसला सुलह की दिशा में कदम बढ़ाएगा या विवाद को और गहराएगा, यह देखने वाली बात होगी।

कई बार किया जा चुका है दावा-

अजमेर दरगाह (ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह) को लेकर कई बार यह दावा किया गया है कि यह स्थल कभी मंदिर था। इन दावों के पीछे कुछ ऐतिहासिक, धार्मिक, और पुरातात्विक तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं। हालांकि, इस विषय पर कोई व्यापक ऐतिहासिक या वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है जो निर्विवाद रूप से इस दावे को सिद्ध कर सके।  

क्या हैं मंदिर होने के दावे के आधार?

1-पुरातात्विक संरचना:

  • कुछ दावेदारों का तर्क है कि दरगाह के परिसर में कई संरचनाएं और वास्तुकला ऐसी हैं, जो प्राचीन भारतीय मंदिर शैली से मेल खाती हैं।  
  • वे यह कहते हैं कि दरगाह की संरचना मूल रूप से एक मंदिर की थी, जिसे बाद में इस्लामी शैली में परिवर्तित कर दिया गया।  

2- स्थानीय किवदंतियां और लोककथाएं:

  • कुछ स्थानीय कथाओं के अनुसार, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के अजमेर आगमन से पहले यह स्थल हिंदू या जैन धार्मिक गतिविधियों का केंद्र था।  

3-मुगलकालीन इतिहास:

  • यह दावा किया जाता है कि मुगल या दिल्ली सल्तनत के दौरान कई मंदिरों को मस्जिद या दरगाह में बदल दिया गया। कुछ लोग इसे उस प्रवृत्ति का हिस्सा मानते हैं।  

4. संग्रहालयों और शिलालेखों का अभाव: 

  • मंदिर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए प्राचीन शिलालेख, मूर्तियां, या अन्य सामग्री होने की बात कही जाती है। हालांकि, इस संबंध में कोई सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।  

इतिहास और दरगाह का निर्माण:

  • ऐतिहासिक तौर पर यह प्रमाणित है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 12वीं शताब्दी के अंत और 13वीं शताब्दी की शुरुआत में अजमेर आए थे।  
  • उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने इस दरगाह का निर्माण कराया।  
  • दरगाह ख्वाजा साहब अधिनियम, 1955 के तहत यह दरगाह एक धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल के रूप में स्थापित है।  

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