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महज 13 दिनों में कैसे भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया! जानिए बांग्लादेश की आज़ादी की पूरी कहानी...

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(Special Story)

16 दिसंबर 1971 की सुबह इतिहास के पन्नों पर लिखने को तैयार थी। भारत और पाकिस्तान की जंग 12 दिनों से जारी थी। ढाका पर भारतीय सेना ने शिकंजा कस लिया था। तभी भारतीय सेना के मेजर जनरल गंधर्व एस. नागरा ने एक ऐतिहासिक फोन कॉल किया। फोन के दूसरी तरफ पाकिस्तान के गर्वनर और लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी थे। गंधर्व ने सीधा कहा, "अब्दुल्ला, मैं गंधर्व बोल रहा हूं।" इस आवाज़ में जीत की गूंज थी। कुछ पल की खामोशी के बाद नियाजी ने पूछा, "तुम कहां हो, गंधर्व?" गंधर्व का जवाब सटीक और चौंकाने वाला था: "मैं ढाका के गेट पर खड़ा हूं और तुम्हारे सरेंडर का इंतजार कर रहा हूं।" नियाजी का स्वर अचानक धीमा पड़ गया। उन्होंने स्वीकार किया, "मैं तैयार हूं।" इसके कुछ ही देर बाद, नियाजी के कैंप में गंधर्व पहुंचे, और इतिहास के सबसे बड़े सैन्य आत्मसमर्पण की शुरुआत हुई।

जब पाकिस्तान के 90 हजार सैनिकों ने किया सरेंडर-

कहानी 16 दिसंबर 1971 की है, लेकिन इसकी जड़ें उस दौर से जुड़ी हैं जब बंटवारे का नामो-निशान भी नहीं था। मेजर जनरल गंधर्व एस. नागरा और लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी तब कॉलेज के दिनों में एक ही क्लास के साथी हुआ करते थे। किसे पता था कि सालों बाद वही दो दोस्त, युद्ध के मैदान में आमने-सामने खड़े होंगे—एक जीत के द्वार पर, दूसरा हार के साये में। कुछ घंटों के भीतर नियाजी ने भारतीय कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने अपने 90,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। यह इतिहास का सबसे बड़ा सैन्य सरेंडर था। इसके साथ ही भारत और पाकिस्तान के बीच तीसरी जंग का अंत हुआ। लेकिन यह सिर्फ एक युद्ध का अंत नहीं था—यह एक नए अध्याय की शुरुआत थी। पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए, और एक नए, स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ।

13 दिनों के भीतर, भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज को घुटनों पर ला दिया

आज से ठीक 53 साल पहले, 4 दिसंबर 1971 को वह जंग शुरू हुई जिसने भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में एक निर्णायक मोड़ ला दिया। इस जंग का मकसद सिर्फ पाकिस्तान को हराना नहीं, बल्कि एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का निर्माण करना था। लेकिन इस कहानी को समझने के लिए पहले पाकिस्तान के ऐतिहासिक सरेंडर का जिक्र करना जरूरी है। यह सरेंडर उस वक्त की पाकिस्तानी सेना की सबसे शर्मनाक हार बन गया। सिर्फ 13 दिनों के भीतर, भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज को घुटनों पर ला दिया। भारतीय सेना अध्यक्ष सैम मानेकशॉ ने सरेंडर की शर्तें तय करने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल जैकफर्ज राफेल जैकब को भेजा, लेकिन वहां पहुंचने पर जैकब ने एक दिलचस्प नजारा देखा। पाकिस्तानी जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी और भारतीय मेजर जनरल गंधर्व एस. नागरा एक सोफे पर बैठे पंजाबी में चुटकुले सुनाते हुए हंस रहे थे। जैकब के पहुंचते ही माहौल अचानक गंभीर हो गया। यह पल सिर्फ एक औपचारिकता नहीं था; यह एक ऐसा दृश्य था जो दोस्ती, दुश्मनी और इतिहास के गहरे सबक को एक साथ समेटे हुए था।

"जनरल जैकब की धमकी और जनरल नियाजी का ऐतिहासिक सरेंडर"

1971 की लड़ाई में, जब पाकिस्तान के जनरल नियाजी को सरेंडर की शर्तें दी गईं, तो उनकी आंखों में आंसू थे। जनरल जैकब ने उन्हें सख्त चेतावनी दी, "अगर आपने सरेंडर नहीं किया, तो मैं ढाका पर बमबारी करूंगा।" 30 मिनट के बाद, जब नियाजी ने चुप्पी साधी, जैकब ने इसे उनकी सहमति मानते हुए सरेंडर की प्रक्रिया शुरू की। रेसकोर्स मैदान में पाकिस्तानी सेना का ऐतिहासिक आत्मसमर्पण हुआ, जिसमें नियाजी ने अपनी पिस्टल तक सरेंडर की। यह दृश्य इतिहास में अमर हो गया।

"1970 का चुनाव: बांग्लादेश की नींव का ऐतिहासिक दिन"

पाकिस्तान दो भागों में बंटा हुआ था - वेस्ट पाकिस्तान और ईस्ट पाकिस्तान। वेस्ट पाकिस्तान के नेताओं द्वारा ईस्ट पाकिस्तान के बंगालियों को न केवल सांस्कृतिक, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से भी नीचा दिखाया जाता था। वहां की 55% आबादी के बावजूद, देश का 80% बजट वेस्ट पाकिस्तान में खर्च होता था। ईस्ट पाकिस्तान की आवाज़ जब भी उठती, पाकिस्तानी सेना उसे क़त्ल कर देती। महिला साड़ी पहनती थीं, और अपनी पहचान के साथ जीते थे, लेकिन सरकार की नज़र में वे हमेशा दूसरे दर्जे के थे। यह भेदभाव और अत्याचार की चुप्प सीलने नहीं थी, और इसी ने ईस्ट पाकिस्तान के नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए सशक्त संघर्ष करने पर मजबूर कर दिया। 1970 का आम चुनाव इस आंदोलन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ, जिसने पाकिस्तान के विभाजन की दिशा तय की और बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी।

"1970 के चुनाव: पाकिस्तान के विभाजन की दिशा तय करने वाला चुनाव"

1970 के चुनाव में पाकिस्तान ने एक ऐतिहासिक मोड़ लिया, जब शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में 169 में से 167 सीटें जीतकर पश्चिमी पाकिस्तान को पीछे छोड़ दिया। इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया कि पूर्वी पाकिस्तान का वर्चस्व अब पाकिस्तान की राजनीति में निर्णायक बन चुका था। इस चुनावी परिणाम ने पाकिस्तान के भविष्य को गहरे संकट में डाल दिया, और विभाजन की राह पर पहला कदम रख दिया।

"शेख मुजीब का ऐतिहासिक भाषण: बांग्लादेश की स्वतंत्रता की नींव"

7 मार्च 1971 को ढाका के रेसकोर्स ग्राउंड पर शेख मुजीबुर्रहमान ने अपने ऐतिहासिक भाषण में पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्रता की राह दिखाते हुए 'बांग्लादेश' के नाम की घोषणा की। इस भाषण ने पाकिस्तान के खिलाफ संघर्ष को जन्म दिया और बांग्लादेश की आज़ादी की शुरुआत मानी गई। शेख मुजीब की गिरफ्तारी और बांग्लादेश में विद्रोह के बावजूद, यह संघर्ष जारी रहा और 26 मार्च 1971 को बांग्लादेश ने औपचारिक रूप से स्वतंत्रता की घोषणा की।

1971: पाकिस्तान की दरिंदगी और भारत की शरण"

25 मार्च 1971 को पाकिस्तान ने अपने पूर्वी हिस्से में विद्रोह को कुचलने के नाम पर ऑपरेशन सर्च लाइट शुरू किया। जनरल टिक्का खान की अगुआई में पाक सेना ने बांग्लादेश के झंडे को देखते ही निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया। ढाका यूनिवर्सिटी पर हमले के साथ, दो दिन के भीतर 1.5 लाख से अधिक लोग मारे गए। इस हिंसा से बचकर असम और पश्चिम बंगाल में शरण लेने के लिए 10 लाख लोग भारत की सीमा की ओर दौड़ पड़े।

"भारत की सीमा पर बांग्लादेशी शरणार्थियों की भारी भीड़"

27 मार्च 1971 को कर्फ्यू हटने के बाद, बांग्लादेश की 80% आबादी अपनी जान बचाने के लिए भारत के सीमावर्ती राज्यों में घुस आई। अप्रैल के पहले सप्ताह में असम और पश्चिम बंगाल में 10 लाख शरणार्थी खड़े थे, जो पाकिस्तान की बर्बरता से बचने के लिए सुरक्षा की तलाश में थे।

"सैम मानेकशॉ की साहसिक चुनौती: इंदिरा गांधी से सीधे युद्ध की बात"

27 अप्रैल 1971 को, जब इंदिरा गांधी ने शरणार्थी संकट के बीच सेना को पूर्वी पाकिस्तान भेजने की योजना बनाई, तो जनरल सैम मानेकशॉ ने अप्रत्याशित रूप से विरोध किया। इंदिरा ने जब युद्ध की बात की, सैम ने साफ शब्दों में कहा, "मैं युद्ध के लिए तैयार नहीं हूं।" उन्होंने सेना की स्थिति, आपूर्ति और मौसम के कारण युद्ध की विफलता की संभावना जताई और 6 महीने का समय मांगा। सैम का यह साहसिक कदम इंदिरा गांधी को चौंका गया, लेकिन उन्होंने अंततः सैम को पूरा नियंत्रण देने का फैसला किया, और फिर भारतीय सेना ने 1971 में पाकिस्तान पर निर्णायक विजय हासिल की।

INS विक्रांत को बचाने के लिए गाजी को धोखा"

3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी पनडुब्बी PNS गाजी ने भारतीय विमानवाहक पोत INS विक्रांत को डुबोने के आदेश प्राप्त किए थे, लेकिन भारत ने चतुराई से उसे बचा लिया। पाकिस्तानी पनडुब्बी ने विशाखापत्तनम के पास हमला करने की कोशिश की, लेकिन भारतीय नेवी ने विक्रांत को छिपाने के लिए उसे वहां से हटा दिया। इस दौरान, एक भारतीय गश्ती बोट के पास से गुजरने पर गाजी की पहचान छिपाने के लिए उसे डुबो दिया गया। 3 दिसंबर की शाम को विस्फोट हुआ, और गाजी समुद्र में डूब गई।

अमेरिका का सातवां बेड़ा और रूस का दमदार जवाब"

1971 के युद्ध में जब पाकिस्तान के हालात बिगड़े, अमेरिका ने अपने USS एंटरप्राइज विमानवाहक पोत को पूर्वी पाकिस्तान भेजने की घोषणा की, यह कहते हुए कि ढाका में कई अमेरिकी नागरिक फंसे हुए हैं। हालांकि, एक दिन पहले ही अमेरिका अपने नागरिकों को निकाल चुका था, और यह एक रणनीति थी भारत पर दबाव डालने की। इस बीच, इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ से मदद मांगी, और सोवियत बेड़ा बंगाल की खाड़ी में पहले ही पहुंच चुका था। रूस की मौजूदगी के सामने अमेरिका और ब्रिटेन के जहाज कुछ नहीं कर पाए। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने सरेंडर किया और भुट्टो ने हार के संकेत के रूप में कागज फाड़ दिए।

"भुट्टो का UN में आंसू और पाकिस्तान का आत्मसमर्पण"

1971 के युद्ध में पाकिस्तान की हार तय हो चुकी थी। सीजफायर के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो ने UN में भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की। 16 दिसंबर को न्यूयॉर्क में भुट्टो की आंखों में आंसू थे, और वे सुरक्षा परिषद से न्याय की अपील कर रहे थे। इस बीच, उन्हें यह खबर मिली कि पाकिस्तान की सेना ने ईस्ट पाकिस्तान में सरेंडर कर दिया है। गुस्से में भुट्टो ने सीजफायर प्रपोजल फाड़ दिया और मीटिंग छोड़ दी, कहते हुए, "मैं अपने देश के अपमानजनक आत्मसमर्पण में भागीदार नहीं बनूंगा!

By Ankit Verma 

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