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प्राण प्रतिष्ठा पर नहीं थम रहा विवाद, अविमुक्तेश्वरानंद को किसने दी शास्त्रार्थ की चुनौती, जानिए कैसे बनते हैं शंकराचार्य ?

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(Special Story) 22 जनवरी जिसका देश सहित दुनियाभर के श्रद्धालुओं को इंतजार है। जब रामलला अपने नए भव्य मंदिर में विराजमान होंगे। लेकिन उनके विराजमान होने को लेकर अभी भी विवाद जारी है। इस आयोजन को लेकर राम जन्मभूमि न्यास, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद के साथ ही बीजेपी और तमाम संगठन कार्यक्रम की फाइनल तैयारियों को अंजाम देने में जुटे हुए हैं। वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस सहित तमाम राजनीतिक दल आयोजन पर ही सवाल उठा रहे हैं। इस कड़ी में शंकराचार्य भी पीछे नहीं हैं। प्राण प्रतिष्ठा पर जहां अविमुक्तेश्वरानंद ने बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया है। अब उनको जगद्गुरु वैदेही वल्लभ ने शास्त्रार्थ की चुनौती दी है। उन्होंने कहा है कि अगर वो इस मामले में हार गए तो जलसमाधि ले लेंगे। आइए आपको विस्तार से बताते है कि आखिर कैसे बनते हैं शंकराचार्य और इनका समाज में क्या रोल होता है। 

क्या है विवाद-

जहां इस समय पूरा देश राममय है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि अर्धनिर्मित मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए। साथ ही रामलला की प्राण प्रतिष्ठा राम के जन्मदिन यानि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को होनी चाहिए। जिसके चलते यह समारोह धार्मिक कम, राजनीतिक अधिक है। इस तरह से भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा शास्त्र के विरुद्ध है। अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा है कि मंदिर भगवान का शरीर है, मंदिर का शिखर भगवान की आंखों का प्रतिनिधित्व करता है और कलश सिर का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर पर लगा झंडा भगवान के बाल हैं। शंकराचार्य ने कहा कि बिना सिर या आंखों के शरीर में प्राण प्रतिष्ठा करना सही नहीं है। यह हमारे शास्त्रों के खिलाफ है। इसलिए मैं वहां नहीं जाऊंगा, क्योंकि अगर मैं वहां जाऊंगा तो लोग कहेंगे कि शास्त्रों का उल्लंघन किया है।

जगद्गुरु वैदेही वल्लभ ने अविमुक्तेश्वरानंद को दी चुनौती-

अब शंकराचार्य के इस बयान पर संतों की प्रतिक्रिया आने लगी है। प्रयागराज में राजस्थान की श्री विजय राम रावल पीठ के पीठाधीश्वर जगद्गुरु वैदेही वल्लभ महाराज ने खुली चुनौती दी है। उनका कहना है कि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़ा करने वाले अविमुक्तेश्वरानंद हमसे शास्त्रार्थ करें और बताएं कि कैसे प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। उन्होंने जो कहा है वो कैसे शास्त्रसम्मत है। अगर शास्त्रार्थ में मैं हार जाउंगा तो मैं संगम में जल समाधि ले लूंगा।

अविमुक्तेश्वरानंद ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य नहीं'-

आपको बता दें कि स्वामी जगद्गुरू वैदेही वल्लभ महाराज ने कहा कि सबसे पहले मैं आपको बता दूं कि वह ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य ही नहीं हैं। ज्योतिष पीठ में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी महाराज मौजूद हैं। ज्योतिष पीठ का निर्णय स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी ही लेते हैं। कोर्ट ने अभी उनको उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार नहीं किया है। शंकराचार्य के ये बयान और इनका प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होना क्यों महत्वपूर्ण है और इस मामले की क्या अहमियत है।  आइए जानते हैं..

शंकराचार्य सनातन धर्म के मुखिया नहीं-

इस पूरे विवाद पर हरिद्वार के पुरुषार्थ आश्रम के महामनिषी निरंजन स्वामी ने क्या कहा आइए बताते हैं.. देश की आजादी के बाद से हमको आजादी तो मिली लेकिन हमको धर्म की आजादी सही मायने में नहीं मिली। आज जब हिन्दू जागृत हुआ है तो धार्मिक आजादी जैसा महौल बना है। हम मठ-मंदिरों को तोड़े जाने की लड़ाई काफी समय से लड़ रहे हैं। हमारे अपने ही ऐसी बातें खड़ी करने लगते हैं तो क्या कहा जाए। एक तरफ ये शंकराचार्य कहते हैं कि हम धर्म के रक्षक हैं और एक तरह ऐसे सवाल खड़े करते हैं। ये लोग कहते हैं कि हम हिन्दू धर्म के सर्वोपरी हैं। लेकिन ये शंकराचार्य सनातन धर्म के मुखिया नहीं हैं। क्योंकि शंकराचार्य 2500 साल पहले आए। जब आदि शंकराचार्य ने देश में चार पीठ बनाए और उनके शंकराचार्य बनाए। लेकिन हमारा सनातन धर्म अनादिकाल से चला आ रहा है। क्या आदि शंकराचार्य के पहले सनातन धर्म नहीं था। उनका मुखिया कौन था।

इसलिए मैं ये कहना चाहता हूं कि अविमुक्तेश्वरानंद जी के पद और उनके प्रति आदर है। लेकिन वैचारिक मतभेद हो सकते हैं क्योंकि शुरू से ही वो पीठ दूसरी राजनैतिक परंपरा से जुड़ी हुई है।  जब राम जन्मभूमि आंदोलन चरम पर था तब इन्ही  लोगों ने रामालय न्यांस बना कर, समानांतर व्यवस्था बनाकर रामजन्मभूमि आंदोलन में विघ्न डाला था। इन लोगों ने अपने हाथ में सत्ता लेनी चाही थी। इसलिए इनसे ज्यादा सलाह मशविरा की जरूरत नहीं है। हम सभी सनातनी एक मंच पर आकर भगवान के कार्य में मिलजुल कर सम्मिल हों। क्योंकि जिन्होंने मुहूर्त निकाला है, वो भी देश के जानेमाने विद्वान हैं।  
इसे पूरे मामले को समझने के लिए आइए जानते हैं कि शंकराचार्य कौन हैं, इनका इतिहास क्या है और सानातन धर्म में ये कितने महत्वपूर्ण हैं।

 कौन थे पहले शंकराचार्य, जानिए इतिहास-

आठवीं शताब्दी के भारत में आज के केरल के एर्नाकुलम जिले में पेरियार नदी के तट पर स्थित कलाडी गाँव में आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था। बौद्धिक प्रतिभा के साथ-साथ भाषा विज्ञान की प्रतिभा के धनी आदि शंकराचार्य दो साल की उम्र में धाराप्रवाह संस्कृत बोल और लिख सकते थे। चार साल की उम्र में वे सभी वेदों का पाठ कर चुके थे और बारह साल की उम्र में इन्होने संन्यास ले लिया और अपना घर छोड़ दिया। इतनी कम उम्र में भी, इन्होने शिष्यों को इकट्ठा किया और आध्यात्मिक विज्ञान को भारत में फिर से स्थापित करने के लिए पूरे देश में घूमना शुरू कर दिया। बारह से बत्तीस वर्ष की आयु के कुल बीस वर्षों में, इन्होने तमिलनाडु में कांची से लेकर असम में कामरूप तक, कश्मीर और हिमालय में केदार और बद्री धाम से लेकर गंगा के तट पर काशी और बंगाल की खाड़ी में पुरी तक, लंबी यात्रा की। 32 साल की ही अवस्था में इतनी लम्बी पैदल यात्रा के साथ-साथ ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखने समेत कई लेखन कार्य भी कर लिया था। इसके बाद बत्तीस वर्ष की आयु में इन्होने अपना शरीर छोड़ दिया था।

देश में चार पीठों की हुई स्थापना-

अपनी भारत यात्रा के दौरान इन्होंने अद्वैत वेदांत का प्रचार किया। शंकराचार्य का मानना था कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग- अलग नहीं हैं। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। इसी के आधार पर उन्होंने "अहं ब्रह्मास्मि" का ब्रह्मसूत्र सिद्धांत दिया। इसे ही अद्वैत सिद्धांत या शांकराद्वैत सिद्धांत कहा गया। 
बौद्ध धर्म के प्रभाव में रहें आठवीं सदी के भारत में हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने वाले शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार के लिये शिंगेरी, पुरी, द्वारका और बद्रीनाथ में चार मठों की स्थापना की। 
आदि शंकराचार्य ने देश के चार दिशाओं में गुजरात, उत्तराखंड, ओडिशा और कर्नाटक में स्थापित किए गए इन मठों की जिम्मेदारी अपने चार प्रमुख शिष्यों को दी। इन्हीं मठों के प्रमुख को ही अब शंकराचार्य कहा जाता है।

शंकराचार्य  बनने के लिए क्या आवश्यक-
 
शंकराचार्य को सनातन धर्म में सर्वश्रेठ गुरुओं की पदवी दी जाती है। इस तरह से हिंदू धर्म और हिंदू धर्मग्रंथों की व्याख्या करने के लिए शंकराचार्य सर्वोच्च गुरु होते हैं। इसी के मद्देनजर शंकराचार्य के पद पर बैठने वाले व्यक्ति को त्यागी, दंडी संन्यासी, संस्कृत, चतुर्वेद, वेदांत ब्राह्मण, ब्रह्मचारी और पुराणों का ज्ञान होना बेहद जरूरी है। शंकराचार्य बनने के लिए ब्राह्मण होने के साथ-साथ चारों वेद और छह वेदांगों का ज्ञान भी होना आवश्यक है। 

कैसे बनते हैं शंकराचार्य-

शंकराचार्य के पद पर बैठने वाले व्यक्तियों  के नाम पर अखाड़ों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति के साथ काशी विद्वत परिषद की स्वीकृति की भी मुहर लगनी आवश्यक होती है। इस पूरी प्रकिया के बाद ही शंकराचार्य की पदवी मिलती है। सभी शंकराचार्य अपने-अपने मठ में शिष्यों को आध्यात्मिक शिक्षा देते हैं। मठ में शिक्षा-दीक्षा के अलावा सामाजिक सेवा, साहित्य से जुड़े काम भी किये जाते हैं। यह पद सर्वोच्च धार्मिक पद हैं । जिसके चलते शंकराचार्य द्वारा प्राण प्रतिष्ठा और इसके नियम कानून की व्याख्या की धार्मिक विद्वानों के जगत में बड़ी अहमियत होती है। इन सभी पहलुओं के मद्देनजर राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में चारों मठों के शंकराचार्य का शामिल होना धर्म, अध्यात्म और भारत की प्राचीन संस्कृति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन इस मसले पर सभी संकराचार्यों और धर्म के जानकारों की राय भिन्न है। इसलिए सिर्फ अविमुक्तेश्वरानंद की बात को मानना भी सरासर गलत होगा। जबकि इस मुद्दे पर कई संतों ने कहा कि ऐसा पहली बार नहीं है जब मंदिर के पूर्ण होने पर ही प्राण प्रतिष्ठा की जाए क्योंकि सोमनाथ में भी ऐसा ही हुआ था तब क्यों नहीं किसी ने आवाज उठाई। इसलिए इस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है।  

 

 

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