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इस किताब को लेकर देश में फिर बवाल क्यों मच गया?

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मनुस्मृति का नाम तो आप सब ने कई बार सुना होगा। हो सकता है की शायद पढ़ा भी हो। लेकिन ये मनुस्मृति अब एक बार फिर सुर्खियों में है। हालांकि इस बार मनुस्मृति की चर्चा जेएनयू के बजाए दिल्ली यूनिवर्सिटी में हो रही है। क्योंकि डीयू प्रशासन ने लॉ फैकिलिटी का वो प्रस्ताव खारिज कर दिया है, जिसमें कानूनी पाठ्यक्रम के तहत मनुस्मृति पढ़ाने की बात कही गई थी। इसे लेकर DU में कई दिनों से बवाल मचा हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय के एलएलबी छात्रों को 'मनुस्मृति' पढ़ाने के प्रस्ताव को रखे जाने की खबरों के बाद कुलपति योगेश सिंह ने भी इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। फ़िलहाल अब इस मामले को लेकर देश में राजनीतिक चर्चाएं तेज हो गयी है।

आर्यों के समय की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन

हिंदू धर्म के कई धर्मशास्त्रों में से कई कानूनी ग्रंथों और संविधानों में से एक मनुस्मृति है। इस पाठ को मानव-धर्मशास्त्र या मनु के कानून के रूप में भी जाना जाता है। स्मृति का मतलब होता है धर्मशास्त्र। ऐसे में मनु द्वारा लिखे गए इस धार्मिक लेख को मनुस्मृति कहा जाता है। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं। जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है। इसमें आर्यों के समय की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन है। यह सदियों से हिंदू कानून का आधार रहा है और आज भी हिंदू धर्म में इसका महत्व बना हुआ है। हालांकि, मनुस्मृति में कुछ विवादास्पद विषय भी शामिल हैं, जैसे जाति व्यवस्था और महिलाओं की स्थिति जैसे विषयों पर अक्सर बहस होती रहती है। 
 
मनु कहते हैं- 'जन्मना जायते शूद्र:' अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार कहा जाता है कि अगर ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। 
 
मनुस्मृति को लेकर विवाद क्यों ?
 
दरअसल कहा जाता है की मनुस्मृति ने शूद्रों के शिक्षा पाने के अधिकार को खारिज कर दिया था। शिक्षा देने की विधि मौखिक हुआ करती थी। ऐसे में कुछ ब्राह्मणों को छोड़कर कोई ये नहीं जानता कि मनुस्मृति आख़िर क्या है? ब्रिटिश राज के दौरान ये किताब क़ानूनी मामलों में इस्तेमाल होने की वजह से चर्चित हो गई थी। 
 

जाति व्यवस्था की नींव-

आंबेडकर अपनी किताब 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म' में लिखते हैं, "मनु ने चार वर्ण व्यवस्था की वकालत की थी। मनु ने इन चार वर्णों को अलग-अलग रखने के बारे में बताकर जाति व्यवस्था की नींव रखी। हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता है कि मनु ने जाति व्यवस्था की रचना की है। लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था के बीज ज़रूर बोए थे।"

जातियों के आधार पर सौंपे  गए दायित्व
 
कई इतिहासकारों ने मनुस्मृति का विद्रूप चित्रण किया है। उनका कहना है कि इसी की थीम पर भारत में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था तैयार की गई जो ये सुनिश्चित करती कि वर्ग विशेष का दबदबा बना रहे। कुछ लोग ही शीर्ष पर रहें। वही सारी संपत्ति के मालिक रहें और सारी शक्ति उनके आधीन हो। उन्होंने मनुष्यों को चार वर्णों में बांट दिया जिन्हें जातियां कहा जाता था। जातियों के आधार पर लोगों को उनके कर्तव्य और दायित्व सौंप दिए गए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक कैटिगिरी बनीं। बहुत से लोग मनुस्मृति का विरोध ये कहकर करते हैं कि ये किताब लोगों में भेद करती है। इसी किताब से जातियों का निर्धारण हुआ है और इन्हीं कारणों समाज के कुछ लोग मनस्मृति का विरोध करते आ रहे हैं। हालांकि इसके कुछ समर्थक भी हैं।

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