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झारखंड चुनाव में आदिवासियों की आई याद, जानिए संघर्ष की कहानी से राजनीतिक वादों तक...

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झारखंड विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए आज मतदान हो रहे हैं। इस चरण में 81 सदस्यीय विधानसभा की 43 सीटों पर मतदान सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक चलेगा। कुल 2.60 करोड़ मतदाताओं में से 1.37 करोड़ मतदाता इस चरण में अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। चुनावी मैदान में कुल 683 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।  झारखंड में चुनावी माहौल गर्म है। झारखंड में चुनावी माहौल गर्म है। हर राजनीतिक पार्टी अपने-अपने एजेंडे के साथ मैदान में उतरी है। इस बार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने चुनावी घोषणापत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की बात कही है, जिसमें आदिवासी समुदायों को इससे बाहर रखने का वादा किया गया है। हर चुनाव में आदिवासियों की याद राजनीतिक पार्टियों को आ ही जाती है, लेकिन ये सिर्फ चुनावी मुद्दा नहीं, बल्कि लंबे संघर्ष की कहानी है।

चुनाव में आदिवासियों की याद-

इस संघर्ष की नींव 18वीं सदी में अंग्रेजों के खिलाफ पड़ी थी, जिसमें कई आदिवासी वीरों ने अपने हक की लड़ाई लड़ी और आदिवासी अस्मिता को बचाए रखने की कोशिश की।

अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह: ढाल विद्रोह-

झारखंड का इतिहास बताता है कि अंग्रेजों ने 18वीं सदी में इस क्षेत्र पर कब्जा जमाया। उस समय झारखंड बिहार का हिस्सा था और छोटा नागपुर के पठार पर फैला हुआ था, जहाँ मुण्डा, संथाल, उरांव, हो, और बिरहोर जैसे आदिवासी समुदायों का निवास था। इनकी जीवनशैली का आधार उनकी ज़मीन थी, लेकिन अंग्रेजों ने व्यापारिक खेती और खनन के बहाने आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करना शुरू कर दिया। इस अन्याय के खिलाफ आदिवासी नेताओं ने विद्रोह का बिगुल फूंका। 1767 में जगन्नाथ ढाल के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ ढाल विद्रोह हुआ, जो लगभग 10 वर्षों तक चलता रहा। इस विद्रोह ने अंग्रेजी सत्ता को कमजोर कर दिया और आदिवासियों के संघर्ष की परंपरा की शुरुआत की।

बिरसा मुण्डा और मुण्डा विद्रोह-

इसके बाद 1899-1900 में बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा विद्रोह हुआ। बिरसा मुण्डा ने अपने लोगों को अंग्रेजों और स्थानीय ज़मींदारों के अत्याचारों के खिलाफ एकजुट किया। उनकी मांग थी कि अंग्रेजी शासन को यहां से खत्म कर मुण्डा राज्य की स्थापना की जाए। 25 दिसंबर 1897 को बिरसा ने एक बड़े विद्रोह की शुरुआत की। हालांकि, अंग्रेजों ने विद्रोह को दबाने के लिए बिरसा को गिरफ्तार कर लिया और जेल में उनकी मौत हो गई। बिरसा मुण्डा का बलिदान उनकी जाति के लिए एक प्रेरणा बन गया, और उन्हें मुण्डा समुदाय के महानायक के रूप में पूजा जाने लगा।

ताना भगत आंदोलन: उरांव समुदाय का संघर्ष-

बिरसा मुण्डा के बाद 1914 में उरांव समुदाय के जत्रा भगत ने ताना भगत आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बिना किराए की मुहिम चलाई और लोगों को अपने अधिकारों के लिए खड़े होने का आह्वान किया। इस आंदोलन ने महात्मा गांधी के सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों को समर्थन दिया, जिससे अंग्रेजों को झारखंड में भी चुनौती का सामना करना पड़ा। ताना भगत आंदोलन ने झारखंड के आदिवासियों को एक नई चेतना दी और उनके संघर्ष की आग को और भड़का दिया।

झारखंड राज्य का गठन: एक लंबा संघर्ष-

1980 के दशक में रामदयाल मुण्डा और बिशेश्वर प्रसाद केशरी जैसे नेताओं ने झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा दी। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य झारखंड को बिहार से अलग कर एक नए राज्य के रूप में स्थापित करना था, जिसमें आदिवासियों के सांस्कृतिक और आर्थिक विकास को ध्यान में रखा जा सके। 2000 में, झारखंड को बिहार से अलग कर एक अलग राज्य का दर्जा मिला। यह आदिवासी संघर्षों की एक बड़ी जीत थी और झारखंड के विकास का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बन गया।

आज भी बरकरार है संघर्ष-

हालांकि, आज झारखंड के आदिवासी समुदाय भूमि विवाद, कम साक्षरता दर, और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। औद्योगिक विकास और खनिज संसाधनों की संपन्नता के बावजूद यहां का आदिवासी समुदाय आर्थिक शोषण और विस्थापन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। झारखंड के चुनाव में आज भले ही आदिवासी समुदायों के लिए विशेष घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन इन वादों का हकीकत में कितना प्रभाव होगा, यह समय ही बताएगा। आदिवासियों के अधिकारों और उनकी जमीन की रक्षा का वादा हर बार चुनावी मुद्दा बनता है, परंतु चुनाव बाद वही मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।

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