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एक चिंगारी जो आज भी सुलग रही है... जानिए खालिस्तान आंदोलन की पूरी दास्तान!

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पंजाब की धरती, जहाँ सदियों पहले गुरुओं की आवाज़ ने धार्मिक, सामाजिक, और नैतिक मूल्यों की नींव रखी थी। ये कब एक तूफान की चपेट में आ गया। पता ही नहीं चला। यह कहानी उस संघर्ष की है, जो पहचान, धर्म और सियासत के धागों से बुनी गई थी। खालिस्तान आंदोलन - जो वक्त के साथ एक अलग ही तरह की जंग में तब्दील हो गई।

सिख धर्म का उदय: गुरु नानक से गुरु गोबिंद सिंह तक-

सिख धर्म का उदय 15वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं से हुआ, जो जाति-धर्म की बेड़ियों से परे एक मानवतावादी समाज की कल्पना करते थे। बाद में मुग़ल शासन के दौरान सिख गुरुओं और समुदाय पर अत्याचार के कारण उनमें अपनी स्वतंत्र पहचान और आत्मरक्षा की भावना पनपने लगी। गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की, जिसने सिखों को आत्मसम्मान और वीरता की एक नई परिभाषा दी। 'खालसा' का मतलब था शुद्धता, स्वराज्य की भावना, और हर अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा।

अंग्रेजों का आगमन: स्वतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा पंजाब-

लेकिन सिखों का यह गौरवशाली इतिहास जल्द ही संघर्ष की राह पर चल पड़ा, जब 1849 में अंग्रेजों ने पंजाब पर कब्जा कर लिया। उस वक्त सिखों का गौरव और स्वतंत्रता धूमिल होती गई, और अंग्रेजी शासन की बेड़ियों में जकड़ दिया गया। अंग्रेजों ने सिखों को सैन्य बल के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान पर लगातार हमले होते रहे। यह वो बीज था, जिसमें संघर्ष की पहली चिंगारी थी—एक ऐसी चिंगारी जो समय के साथ एक विद्रोह की आग में तब्दील होने वाली थी।

विभाजन का दर्द: दिलों में गहरे ज़ख्म

1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन पंजाब का सीना दो टुकड़ों में चीर दिया गया। लाखों लोग विस्थापित हुए, खून की नदियां बहीं। हजारों सिखों, मुसलमानों और हिन्दुओं को अपने घरों से भागना पड़ा। इस त्रासदी ने पंजाब के लोगों के दिलों में गहरे जख्म छोड़े। सिखों का यह मानना था कि उनके साथ अन्याय हुआ है क्योंकि वे न तो हिंदू हैं, न ही मुस्लिम, और उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान खतरे में पड़ गई है। विभाजन के बाद की राजनीति में सिख नेताओं की मांग थी कि उन्हें पंजाब के रूप में एक अलग राज्य दिया जाए जहाँ सिखों का बहुमत हो। खैर  ...  धीरे-धीरे, नए पंजाब में जीवन पटरी पर लौटा, लेकिन कुछ असंतोष की चिंगारियां अभी भी सुलग रही थीं।

आनंदपुर साहिब प्रस्ताव: स्वायत्तता की मांग-

साल 1973 में सिख नेताओं ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पास किया। इसमें सिखों के लिए स्वायत्तता और पंजाब के लिए अधिक अधिकारों की मांग की गई। इस प्रस्ताव में पंजाब को एक स्वायत्त राज्य के रूप में स्वीकारने तथा केंद्र को विदेश मामलों, मुद्रा, रक्षा और संचार सहित केवल पाँच दायित्व अपने पास रखते हुए बाकी के अधिकार राज्य को देने संबंधी बातें कही गईं थी। लेकिन इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने देश हित के खिलाफ माना और इसे मना कर दिया गया। यह संघर्ष अब केवल राजनीतिक नहीं रहा; यह पहचान और आत्मसम्मान की लड़ाई में बदल गया। धीरे-धीरे, यह आंदोलन धार्मिक और सांस्कृतिक मांगों से आगे बढ़कर अलगाव की मांग तक जा पहुंचा। ये लोग अपने लिए एक अलग देश की मांग करने लगे और वो था - खालिस्तान । 

जर्नैल सिंह भिंडरांवाले का उदय: एक नए नेता की आहट-

1970 के दशक में जर्नैल सिंह भिंडरांवाले का उदय हुआ, जो इस आंदोलन के सबसे प्रभावशाली नेता बने। भिंडरांवाले ने सिखों के आत्मसम्मान की रक्षा करने की बात कही, लेकिन उनके भाषणों में एक नए खालिस्तान की मांग भी छिपी थी। उन्होंने पंजाब में सिख युवाओं के बीच जबरदस्त समर्थन हासिल किया और धीरे-धीरे यह आंदोलन हिंसक होने लगा।

ऑपरेशन ब्लू स्टार: पवित्रता का भंग होना-

सिखों का सबसे पवित्र स्थान - स्वर्ण मंदिर - अब आंदोलन का गढ़ बन चुका था। भिंडरांवाले और उनके समर्थक स्वर्ण मंदिर में जमा हो गए और इसे अपनी ताकत का केंद्र बना लिया। लेकिन भारतीय सरकार के लिए यह एक चुनौती थी। पंजाब में हिंसा बढ़ती जा रही थी, और सरकार के पास एक कठोर कदम उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। इसी मोड़ पर सरकार को चलाना पड़ा - ऑपरेशन ब्लू स्टार ।  जून 1984 में, भारतीय सेना ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के तहत स्वर्ण मंदिर में छिपे भिंडरांवाले और उनके समर्थकों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की। यह अभियान सिख समुदाय के दिलों पर एक गहरा आघात था। गोलियों की आवाज़, मंदिर की पवित्रता को भंग करती हुई, हर सिख के दिल में दर्द और आक्रोश पैदा कर रही थी। ऑपरेशन खत्म हुआ, लेकिन भिंडरांवाले और कई समर्थकों की मौत ने सिख समुदाय को एक गहरे सदमे में डाल दिया। मंदिर की दीवारें, जो कभी प्रार्थनाओं से गूंजती थीं, अब खून और आँसुओं की गवाह बन चुकी थीं।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और दंगे-

परिणाम ये हुआ कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के कुछ ही महीनों बाद, 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी। यह घटना भारतीय राजनीति में भूकंप की तरह थी। इस हत्या के बाद देशभर में सिख-विरोधी दंगे भड़क उठे। दिल्ली और अन्य शहरों में हजारों निर्दोष सिखों की निर्मम हत्या कर दी गई। इस हिंसा ने सिखों के दिलों में भय और आक्रोश को और गहरा कर दिया।

खालिस्तान का सपना और उसका अंत-

यहां से खालिस्तान आंदोलन एक और मोड़ पर पहुंच गया। सिखों के भीतर आक्रोश और असुरक्षा की भावना भड़क उठी, और देशभर में सिखों के साथ हुए अन्याय ने उनके दिलों में प्रतिशोध की भावना को जन्म दिया। इसका खामियाजा ये हुआ कि 1980 और 1990 के दशक में खालिस्तान समर्थकों ने कई हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया। लेकिन धीरे-धीरे, सरकार की सख्त कार्रवाइयों, सिख समुदाय के भीतर मतभेद, और हिंसा से मोहभंग ने आंदोलन को कमजोर कर दिया। खालिस्तान का सपना धुंधला होता चला गया।

विदेशों में खालिस्तान की आवाज़: एक नया मोर्चा-

लेकिन इसका प्रभाव आज भी सिख समाज पर बना हुआ है। विदेशों में बसे कुछ सिख संगठनों द्वारा खालिस्तान की मांग आज भी उठाई जाती है। कनाडा, ब्रिटेन, और अमेरिका में खालिस्तान समर्थक समूह अक्सर खालिस्तान की मांग उठाते हैं, जिससे भारत के साथ इन देशों के संबंधों में तनाव पैदा होता है। हाल ही में, हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद कनाडा और भारत के बीच कूटनीतिक तनाव बढ़ गया। 

आज का सिख समाज: विकास की ओर एक नई राह-

लेकिन भारतीय सिख समाज ने इस हिंसा और अलगाव से खुद को दूर कर लिया है। आज, भारत में सिख समुदाय को भारतीय राजनीति और समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। पंजाब एक समृद्ध राज्य है, और सिखों ने भारतीय सेना, राजनीति, और व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । हालांकि, खालिस्तान आंदोलन की विरासत कभी-कभी सिख राजनीति में उठती है, लेकिन अधिकांश सिख आज भारत की अखंडता और विकास के साथ जुड़कर आगे बढ़ रहे हैं। पंजाब और सिख भारत के हैं और ये भारत भी पंजाब और सिखों का उतना ही है जितना कि हम सबका है । 

संघर्ष, पहचान और संतुलन की कहानी-

कुल मिलाकर खालिस्तान आंदोलन की ये कहानी केवल एक धार्मिक या राजनीतिक आंदोलन नहीं है, बल्कि यह एक समुदाय की आत्मा की यात्रा है। संघर्ष, बलिदान और पहचान की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कोई भी आंदोलन जब हिंसा और अतिवाद की ओर बढ़ता है, तो उसकी दिशा भटक जाती है। यह गाथा हमें उस नाजुक संतुलन की याद दिलाती है, जहाँ पहचान और अधिकार की लड़ाई को हिंसा से परे जाकर शांति और संवाद से हल किया जा सकता है।

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