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क्या यूपी के उपचुनाव में इस सीट पर चलेगा जातीय समीकरण का गणित? या हावी होगा मुद्दों का चुनावी दंगल...

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उत्तर प्रदेश की फूलपुर विधानसभा सीट पर इस बार का उपचुनाव तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौतीपूर्ण परीक्षा बन गया है। जहां जातीय समीकरण चुनावी माहौल को प्रभावित कर रहे हैं, वहीं प्रमुख मुद्दों की गैरमौजूदगी में उम्मीदवारों के पक्ष में समर्थन जुटाना कठिन हो गया है। इस क्षेत्र को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कर्मभूमि होने के नाते खास पहचान मिली है, लेकिन इसके मतदाताओं का मन समझना हमेशा से सियासी पंडितों के लिए मुश्किल रहा है। इस बार की सीधी टक्कर समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच है, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की भूमिका वोट कटवा के रूप में देखी जा रही है।

जातीय समीकरण में उलझी भाजपा-सपा की रणनीति-

इस सीट पर भाजपा ने पूर्व विधायक दीपक पटेल को उतारा है, जो पहले भी क्षेत्र में विधायक रह चुके हैं, जबकि सपा ने तीन बार के विधायक मुज्तबा सिद्दीकी को मौका दिया है। पिछली बार 2022 के विधानसभा चुनाव में मुज्तबा सिद्दीकी को भाजपा के प्रवीण पटेल ने 2,723 मतों से हराया था। प्रवीण पटेल के सांसद बनने के बाद इस सीट पर उपचुनाव हो रहे हैं, जो जातिगत गणना के बीच और भी कठिन हो गया है। यहां कुर्मी समुदाय के करीब 70,000 वोट हैं, जो भाजपा के समर्थन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वहीं, सपा यादव और मुस्लिम (माई) समीकरण के साथ मजबूत स्थिति में नजर आ रही है।

प्रमुख जातियों का वोट बैंक और राजनीतिक दलों की ध्रुवीकरण रणनीति-

फूलपुर के 4.07 लाख मतदाताओं में ओबीसी समुदाय का दबदबा है। कुर्मी, यादव, और अन्य पिछड़ी जातियों के वोटों के आधार पर ही जीत-हार का फैसला होता है। भाजपा यहां कुर्मी, मौर्य, दलित, कुशवाहा, और सवर्ण बिरादरी के वोटों को साधने में जुटी है, जबकि सपा के साथ गठबंधन की वजह से यादव-मुस्लिम समीकरण मजबूत माना जा रहा है। भाजपा का प्रयास है कि कुर्मी और अन्य परंपरागत वोट बैंक को साधते हुए जातीय आधार पर समीकरण बनाए रखे।

विपक्ष की पीडीए रणनीति और भाजपा का पलटवार-

इंडिया गठबंधन में शामिल सपा और अन्य दल भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार की विफलताओं को मुद्दा बना रहे हैं। गठबंधन पिछड़ा, दलित, और अल्पसंख्यक (पीडीए) जातीय फॉर्मूला अपनाकर भाजपा को चुनौती दे रहा है। हालांकि, स्थानीय स्तर पर कई लोग इस मुद्दे को अधिक प्रभावी नहीं मानते। कुछ नेताओं का मानना है कि उपचुनाव में सत्तारूढ़ दल का प्रभाव अधिक होता है, जबकि मुद्दों पर आधारित मतदान करने वाले लोग कम ही होते हैं।

विकास के मुद्दे पर मतदाताओं की प्रतिक्रिया-

चुनाव में विकास के मुद्दे भी कहीं-कहीं सुनाई दे रहे हैं। स्थानीय निवासी रफीक का कहना है कि कछारी क्षेत्र में बांध का निर्माण और आवारा जानवरों से निजात दिलाना यहां के प्रमुख मुद्दे हैं। युवा मतदाता भी विकास की योजनाओं को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया दे रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि बीते दशक में विकास की गति में सुधार हुआ है, लेकिन चुनाव के दौरान किए गए बड़े वादे अक्सर अधूरे ही रह जाते हैं।

चुनाव में बसपा और अन्य छोटे दलों की भूमिका-

बसपा ने इस बार ठा. जितेंद्र कुमार सिंह को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन बसपा के प्रति कुछ नाराजगी भी दिखाई दे रही है। पार्टी ने शिवबरन पासी का टिकट काटकर नए प्रत्याशी को मौका दिया है, जिससे पासी समाज में नाराजगी है। वहीं, चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी पहली बार यहां चुनाव मैदान में उतरी है। इसके प्रत्याशी शाहिद अख्तर खान सपा के मुस्लिम-यादव समीकरण को चुनौती दे सकते हैं। इसके अलावा, अन्य छोटे दल भी भाजपा और सपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं।

क्या जातिगत गणना का गणित चलेगा?

फूलपुर का उपचुनाव जातीय गणना, पीडीए और माई समीकरणों, विकास की स्थिति, और छोटे दलों की वोटकटवा भूमिका के बीच जूझता हुआ नजर आ रहा है। भाजपा जहां कुर्मी और सवर्ण मतों को साधने की कोशिश में है, वहीं सपा अपने परंपरागत वोट बैंक और गठबंधन के समर्थन के बलबूते मैदान में उतरी है। ओबीसी और दलित समुदायों की निर्णायक भूमिका इस चुनाव में प्रमुख साबित हो सकती है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह जातीय समीकरण भाजपा को हैट्रिक दिला पाएगा, या फिर सपा अपने गठबंधन के साथ इसे अपने पक्ष में कर पाएगी।

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