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पृथ्वी के वायुमंडल में लाया गया कार्टोसैट-2 उपग्रह, इसे धरती पर गिराना क्यों था जरूरी?

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(Special Story) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानि इसरो ने कार्टोसैट-2 उपग्रह को अंतरिक्ष से पृथ्वी के वायुमंडल में लाने में सफलता हासिल की है। यह हाई रिजॉल्यूशन इमेजिंग उपग्रहों की दूसरी पीढ़ी का उपग्रह था। इसरो के एक अधिकारी ने इसकी जानकारी दी। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर 17 साल बाद इसको धरती पर गिराना क्यों जरूरी था। 

जब पृथ्वी के वायुमंडल में उपग्रह ने किया प्रवेश- 

आपको बता दें कि कार्टोसैट-2 उपग्रह के सफलतापूर्वक पृथ्वी के वायुमंडल में उतरने को लेकर  इसरो अधिकारी ने जानकारी देते हुए कहा है कि सैटेलाइट ने 14 फरवरी को दोपहर 3:48 बजे हिंद महासागर के ऊपर से पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश किया था। हालांकि उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी आशंका है कि या तो वह जल गया होगा या फिर इसका बचा हुआ हिस्सा समुद्र में गिर गया होगा, जिसे हम ढूंढ नहीं पाएंगे। इसरो ने कहा कि 'इलेक्ट्रिकल पैसिवेशन' 14 फरवरी को पूरा हो गया था और ट्रैकिंग दोबारा प्रवेश तक जारी रही। अंतिम टेलीमेट्री फ्रेम ने सफल पैसिवेशन की पुष्टि की, जिसमें उपग्रह लगभग 130 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंच गया था। जिस उपग्रह को धरती पर लाकर गिराया गया वो कौन सा उपग्रह था।

क्या है कार्टोसैट-2 उपग्रह-

कार्टोसैट-2 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानि इसरो द्वारा विकसित एक earth  observation उपग्रह है। यह कार्टोसैट उपग्रह श्रृंखला का हिस्सा है, जिसका उपयोग मानचित्रण, भूमि उपयोग योजना, और आपदा प्रबंधन सहित विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए किया जाता था। इसका उपयोग टोपोग्राफिक मानचित्र, रोड मैप और कैडस्ट्रल मानचित्र बनाने के लिए किया जाता है। कार्टोसैट-2 उपग्रह का उपयोग प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप और तूफान की निगरानी के लिए किया जाता है। इसका उपयोग आपदा प्रभावित क्षेत्रों का आंकलन करने और राहत कार्यों की योजना बनाने के लिए किया जाता है। 

कब लॉन्च किया था उपग्रह-

कार्टोसैट-2 उपग्रह को 10 जनवरी, 2007 को पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानि पीएसएलवी द्वारा लॉन्च किया गया था। यह 630 किलोमीटर की ऊंचाई पर सूर्य-तुल्यकालिक कक्षा में कार्य कर रहा था। उपग्रह का वजन 710 किलोग्राम है और इसमें पंचक्रोमैटिक कैमरा है जो 0.86 मीटर का पैनक्रोमैटिक रिज़ॉल्यूशन प्रदान करता है। इसरो के बयान के मुताबिक, 2019 तक उपग्रह ने शहरी नियोजन के लिए हाई रिजॉल्यूशन इमेजरी का काम किया। 

अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देशों को दी गई वरीयता- 

इसरो के मुताबिक शुरुआत में कार्टोसैट-2 को डी-आर्बिट में पहुंचने में लगभग 30 साल लगने की उम्मीद थी। हालांकि, इसरो ने अंतरिक्ष मलबे को कम करने पर अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिए बचे हुए ईंधन का इस्तेमाल करके अपनी परिधि को कम करने का विकल्प चुना। इसरो के मुताबिक, बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति (यूएन-सीओपीओयूएस) और अंतर-एजेंसी अंतरिक्ष मलबा समन्वय समिति (आईएडीसी) जैसे संगठनों की सिफारिशों के बाद इस अभ्यास में टकराव के जोखिमों को कम करना और जीवन के अंत में सुरक्षित निपटान सुनिश्चित करना शामिल था।

क्या होता है अंतरिक्ष मलबा-

आपको बता दें कि अंतरिक्ष मलबा एक गंभीर समस्या है। यह अंतरिक्ष यान और उपग्रहों के लिए बड़ी समस्या पैदा कर सकता है। मलबे का एक छोटा सा टुकड़ा भी उच्च गति से यात्रा कर सकता है और महत्वपूर्ण क्षति पहुंचा सकता है। 2009 में, एक निष्क्रिय रूसी उपग्रह से टकरा गया इरिडियम 33 उपग्रह, जिसक बाद दोनों उपग्रह नष्ट हो गए थे। अंतरिक्ष मलबे की समस्या से निपटने के लिए कई तरीके हैं। एक तरीका है अंतरिक्ष यान और उपग्रहों को डिजाइन करना ताकि वे अपने जीवनकाल के अंत में डी-ऑर्बिट हो जाएं। इसका मतलब है कि वे वायुमंडल में प्रवेश करेंगे और जल जाएंगे। अंतरिक्ष मलबे की समस्या से निपटना एक चुनौती है, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण है। अंतरिक्ष यान और उपग्रहों की सुरक्षा के लिए और भविष्य में अंतरिक्ष की खोज जारी रखने के लिए कार्रवाई करना आवश्यक है।

इसलिए धरती पर गिराना था जरूरी- 

वैज्ञानिकों के मुताबिक कार्टोसैट-2 उपग्रह को धरती पर गिराना इसलिए जरूरी था क्योंकि अंतरिक्ष में किसी प्रकार के हादसे से बचा जा सके। इसलिए धरती पर इसको गिराया गया लेकिन इसरो के वैज्ञानिकों ने सोचा कि क्यों न इसमें बचे हुए फ्यूल का इस्तेमाल करके इसे जमीन पर गिरा दिया जाए। इसलिए अंतरराष्ट्रीय नियमों को मानते हुए इसे नीचे गिराया गया। नियंत्रित तरीके से इसे धरती पर लाया गया ताकि यह निष्क्रिय सैटेलाइट अंतरिक्ष में किसी अन्य सैटेलाइट से टकरा कर कचरा न फैलाए। इसके साथ ही स्पेस स्टेशन के लिए खतरा न बने। 

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