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वर्तमान समय में भारत में जनहित के नाम पर निजी संपत्तियों के अधिग्रहण का मामला गंभीर बहस का विषय बना हुआ है। अक्सर देखा गया है कि सरकारें कम मुआवजे पर किसानों की जमीन अधिग्रहित कर ऊंचे दामों पर निजी कंपनियों को सौंप देती हैं। भूमि अधिग्रहण के इस सिलसिले में बिचौलियों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से फर्जी दस्तावेज बनाकर गरीब किसानों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप, पुनर्वास के वादे अधूरे रहते हैं और लाभ सिर्फ प्रभावशाली लोगों को मिलता है। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला एक अहम बदलाव का संकेत देता है।
भारत में भूमि अधिग्रहण के मुद्दों पर सिंगूर और नंदीग्राम जैसे स्थानों पर भारी विरोध प्रदर्शन हुए थे। इन घटनाओं में जनता ने बड़े पैमाने पर भाग लिया, जो इस बात को दर्शाता है कि राज्य सरकारें भूमि अधिग्रहण में अपने अधिकारों का कैसे उपयोग करती हैं और जन समर्थन न मिलने पर इन्हें कैसे पीछे हटना पड़ता है। 1978 में, 44वें संविधान संशोधन के तहत निजी संपत्ति को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था और इसे अनुच्छेद 300(A) के तहत एक संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई। यह अनुच्छेद कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना वंचित नहीं किया जा सकता।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में निजी संपत्ति के अधिकार पर बड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अब राज्य सरकार "जनहित" के नाम पर किसी की निजी संपत्ति को आसानी से अधिग्रहित नहीं कर सकती। मामला मुंबई स्थित Property Owners Association द्वारा महाराष्ट्र सरकार के एक कानून को चुनौती देने से संबंधित था, जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकार निजी संपत्ति को केवल 100 महीने के किराए के मुआवजे पर ले सकती है। इस मामले पर 22 साल बाद, 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया।
इस फैसले का आधार 1978 के कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथा रेड्डी मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर द्वारा दिया गया निर्णय है, जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी भी संपत्ति को, यदि वह समाज के भले के लिए उपयोगी हो सकती है, तो उसे सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने आठ जजों की सहमति से इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि निजी संपत्ति को "सामुदायिक संसाधन" मानकर आसानी से जनहित के नाम पर नहीं लिया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में Article 39(b) पर भी ध्यान केंद्रित किया, जो राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है। यह अनुच्छेद राज्य को निर्देश देता है कि वह संसाधनों का प्रबंधन समाज के भले के लिए करे। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी भी निजी संपत्ति को सिर्फ इसलिए सामुदायिक संसाधन नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह कुछ लोगों के काम आ सकती है। यह विचार तब प्रासंगिक होता है जब निजी संपत्ति और सामुदायिक लाभ के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक विकास के वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इस फैसले को समयानुकूल बताया। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने स्पष्ट किया कि आर्थिक विकास के इस युग में निजी संपत्ति और जनहित के बीच संतुलन जरूरी है, ताकि किसी भी व्यक्ति के निजी अधिकारों का अतिक्रमण न हो।
संविधान के Article 31C के तहत राज्य सरकारें Article 39(b) और 39(c) के निर्देशों के अनुसार कुछ विशेष कानून बना सकती हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए और इसे निजी संपत्ति के अधिकारों पर बलपूर्वक लागू नहीं किया जा सकता। इस संशोधन को पहले केशवानंद भारती केस में चुनौती दी गई थी, जोकि भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण था।
इस फैसले में “Public Trust Doctrine” पर भी चर्चा की गई है। यह सिद्धांत कहता है कि कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिन्हें समाज के लिए संरक्षित रखा जाना चाहिए, ताकि सभी लोग उनसे लाभ उठा सकें। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सिद्धांत हर निजी संपत्ति पर लागू नहीं होता और इसे जनहित के दृष्टिकोण से जांचे बिना लागू करना उचित नहीं होगा।
यह फैसला भारतीय समाज और कानूनी व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है। अब सरकारें जनहित के नाम पर निजी संपत्ति का दुरुपयोग नहीं कर पाएंगी और भूमि अधिग्रहण में एक पारदर्शी प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य होगा। उम्मीद की जा रही है कि इस फैसले से निजी संपत्ति के अधिकारों की रक्षा होगी और भूमि अधिग्रहण के मामलों में किसान और आम नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे।
Baten UP Ki Desk
Published : 5 November, 2024, 8:44 pm
Author Info : Baten UP Ki