बड़ी खबरें

पीएम मोदी आज करेंगे रामनगरी का दौरा, रामलला के दर्शन के बाद करेंगे रोड शो 20 घंटे पहले जम्मू-कश्मीर में वायुसेना के काफिले पर आतंकवादी हमले की खरगे ने की निंदा, राहुल ने जताया शोक 20 घंटे पहले दिल्ली में छठे दिन सबसे ज्यादा 51 उम्मीदवारों के नामांकन, पर्चा भरने का कल अंतिम दिन 20 घंटे पहले देशभर में नीट ( NEET 2024) की परीक्षा आज, जम्मू-कश्मीर से 30 हजार परीक्षार्थी होंगे शामिल 19 घंटे पहले आईपीएल 2024 का 52वें रोमांचक मुकाबले में आरसीबी की जीत, गुजरात को चार विकेट से हराया 19 घंटे पहले यूपी क्रिकेट एसोसिएशन के चेयरमैन को लोकायुक्त का नोटिस, मांगा पांच साल के आय का ब्यौरा 16 घंटे पहले प्रज्वल रेवन्ना पर कसा शिकंजा, इंटरपोल ने जारी किया ब्लू कॉर्नर नोटिस 13 घंटे पहले आईपीएल 2024 के 53वें मैच में चेन्नई सुपर किंग्स ने पंजाब किंग्स को 28 रनों से हराया, रविंद्र जडेजा ने झटके तीन विकेट 12 घंटे पहले

अपनी जान के दुश्मन क्यों बन रहे हैं युवा, सुसाइड के मामले में यूपी का ये शहर टॉप पर

Blog Image

(Special Story) कहते हैं जीवन ईश्वर द्वारा दिया गया एक अनमोल तोहफा है। हमारी जिंदगी में जो भी होता है, उसमें सुख दुख, अच्छे-बुरे, सफलता-असफलता, हमें इस अनमोल तोहफे का अनुभव करने का मौक देता है। जीवन का प्रत्येक क्षण हमें एक सीख देता है। जो हमारी जिंदगी को आगे बढ़ने में मदद करता है। इसलिए इसका भरभूर आनंद ले इसे यूं ही न गवांए.... लेकिन आज के युवाओं को न जाने क्या हो गया है कि वो छोटी-छोटी समस्याओं और परेशानियों को लेकर इस अनमोल जीवन को समाप्त करने की मनोवृत्ति को बढ़ावा देने लगे हैं। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर युवाओं में ये मनोवृत्ति क्यों बढ़ रही है और इस पर कैसे काबू पाया जा सकता है। 

संघर्ष की जगह जिंदगी से पलायन क्यों ?

उत्तर प्रदेश में युवा छोटी-छोटी बातों पर ही मौत को गले लगा रहे हैं। जिंदगी में संघर्ष से भाग जाना तो कायरता है, चुनौतियों से जूझना, लड़ना और जीतकर ही जिंदगी में रोमांच  पैदा पैदा किया जा सकता है। लेकिन प्रदेश की राजधानी सहित बड़े शहरों में युवा जिंदगी की जंग हार रहे हैं। वे लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और संघर्ष की जगह जिंदगी से पलायन का रास्ता चुन रहे हैं।

डराते हैं NCRB के आंकड़े-

एनसीआरबी के आंकड़ों पर नज़र डाले तो पता चलता है कि कानपुर के बाद लखनऊ के युवा मौत को लगे लगाने में सबसे आगे हैं। युवा ही नहीं, बल्कि आत्महत्या के मामले में 12 साल से लेकर 80 साल के बुजुर्गो के बीच भी देखे जा रहे हैं। लेकिन इसमें सबसे बड़ी तादात युवाओं की है। जो अपनी जान के दुश्मन बने हुए हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक लखनऊ में साल 2022 में 361 लोगों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़ा डराता है, इसका मतलब है कि करीब-करीब रोजाना ही एक आत्महत्या की बुरी खबर से हमारा सामना हुआ है। 

दुनियाभर में बढ़ रहा है आत्महत्या का ग्राफ-

निराशा अथवा अवसाद के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति द्वारा खुद की हत्या कर लेने वाले व्यवहार को आत्महत्या कहा जाता है। देखा जाए तो दुनियाभर में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। सुसाइड को लेकर Human Development Report के 2022 के आंकड़ों के मुताबिक, हर साल 7 लाख से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा महिलाएं सुसाइड करने का प्रयास करती हैं। लेकिन सुसाइड से पुरुष सबसे ज्यादा मरते हैं। पुरुषों के आत्महत्या के आंकड़े ग्लोबल इंडेक्स में बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। WHO की डेटा के मुताबिक, दुनियाभर में  793,000 लोगों ने आत्महत्या की है। इसमें से ज़्यादातर पुरुष थे। 

क्या होता है सुसाइडल आइडिएशन- 

जब कोई शख़्स आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगता है तो इस स्थिति को मनोचिकित्सक सुसाइडल आइडिएशन यानी आत्महत्या का ख्याल कहते हैं। अक्सर जब व्यक्ति को किसी मुश्किल से निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता है, तो वो अपना जीवन ख़त्म करने के बारे में सोचता है। सवाल यह उठता है कि क्या आत्महत्या का विचार अपने आप ही आने लगता है या फिर इसकी कोई मेडिकल वजह भी होती है? दरअसल आत्महत्या का विचार प्राकृतिक नहीं होता है। मस्तिष्क में बायो न्यूरोलॉजिकल बदलावों के चलते लोगों को लगने लगता है कि जीवन किसी काम का नहीं है। इसके बाद इंसान को आत्महत्या करने का विचार आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ जिन लोगों के व्यवहार में अवसाद, मानसिक स्थिति का एकसमान न रहना, बेचैनी और घबराहट का होना, हमेशा निगेटिव बातों का आना और जिस चीज़ में पहले खुशी मिलती थी, अब उसमें दिलचस्पी ना होना - इस तरह के संकेत मिलें तो उनमें आत्महत्या का विचार आ सकता है। इसके अलावा ज़रूरी नहीं है कि आत्महत्या का विचार वाले सभी लोगों में इसके संकेत दिखे। वे जो बोलते हैं या करते हैं, उससे भी यह ज़ाहिर हो सकता है।

यानी आत्महत्या का मूल कारण मानसिक विकार को माना जा सकता है।मानसिक विकारों को लेकर अभी भी काफ़ी ग़लतफहमियां है, इसलिए इसके बारे में ज़्यादा चर्चा नहीं होती है। एक ग़लतफहमी तो यही है कि लोग अमूमन ये सोचते हैं कि जब तक स्थिति गंभीर नहीं हो तब तक लोग आत्महत्या के बारे में नहीं सोचते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो आत्महत्या का ख्याल कभी भी आ सकता है। ऐसी स्थिति में मेंटल हेल्थ काउंसलिंग की मदद लेनी चाहिए या फिर डॉक्टर को दिखाना चाहिए। 

सुसाइडल आइडिएशन को रोकने के उपाय-

विभिन्न उपायों पर अमल कर ऐसे नकारात्मक विचारों पर काबू पाया जा सकता है....

आत्महत्या के प्रयास को लेकर कानूनी स्थिति-

भारत में आत्महत्या के प्रयास को लेकर कानूनी स्थिति की करें तो संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन या स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है, लेकिन इसमें 'मृत्यु का अधिकार' शामिल नहीं है। किसी के जीवन लेने के प्रयासों को जीवन के संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं माना जाता है। इसके अलावा, IPC की धारा 309 में आत्महत्या की कोशिश के जुर्म में व्यक्ति को साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों सज़ा से दंडित किया जा सकता है जिसे एक साल तक बढ़ाया जा सकता है। हालांकि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की धारा 115 (1) के जरिए IPC की धारा 309 के उपयोग को काफी कम कर दिया गया है और केवल अपवाद की स्थिति में आत्महत्या के प्रयास को दंडनीय बनाया गया है। इसके अलावा सरकार ने चिंता, तनाव, अवसाद और आत्महत्या जैसी समस्याओं से निपटने के लिए ‘किरण’ और ‘मनोदर्पण पहल’ जैसे कदम उठाए हैं।

युवाओं में बढ़ रहे सुसाइड के मामलों पर आइए जानते हैं क्या कहना है मनोवैज्ञानिक नेहाश्री श्रीवास्तव का... उन्होंने बताया कि इसके लिए कोई एक कारण न होकर कई कारण हो सकते हैं जिसको विस्तार से समझा जा सकता है।

बच्चों में धैर्य की कमी का होना-

आजकल देखा जाए तो बच्चों में patience यानी धैर्य की कमी देखी जा सकती है। युवाओं में धैर्य बहुत कम होता जा रहा है। मैं पिछले चौदह सालों से युवाओं के beach में हूं as a मनोवैज्ञानिक field में हूं और एक शिक्षक के नाते भी उनसे जुड़ी हुई हूं। तो जितना मैंने देखा है कि बच्चों में यह चीज़ें बहुत आती जा रही हैं youth में कि उनको जल्दी सब कुछ मिल जाए। उनको जल्दी जल्दी हर चीज़ का shortcut चाहिए। उनके अंदर धैर्य नहीं पनप रहा है और धैर्य ना होने का कारण कहीं ना कहीं उनके background में भी इसके बीज देखने को मिलते हैं। क्योंकि अगर बच्चों में धैर्य नहीं आ रहा है तो इसके पीछे कहीं ना कहीं परिवार school भी ज़िम्मेदार हैं। क्योंकि किसी भी सत्रह अट्ठारह साल के व्यक्ति को आप तुरंत तुरंत कोई चीज़ नहीं सीखा सकते। अट्ठारह साल तक जो चीज़ें उसके साथ carry on कर रही हैं वह उसके व्यक्तित्व का part बन ही जाती हैं। तो धैर्य बच्चों में बिल्कुल खो रहा है।

unhealthy कम्पटीशन-

उनके अंदर competition तो है लेकिन competition unhealthy है। उनको खुद से खुद में जो competition करने की एक जो परिकल्पना होनी चाहिए कि हम पिछले महीने हमारा क्या स्तर था, इस साल क्या स्तर या पिछले साल हमारा क्या स्तर था इस बार exam में क्या स्तर है। बच्चों में यह भावना  है कि उनके अपने अपने बगल में खड़े हुए व्यक्ति से ज़्यादा competition है। और उससे भी ज़्यादा मैं देख रही हूं कि परिवारों में यह चीज़ें बहुत हैं कि आपस में ही जो आपके चचेरे भाई हैं, आपके पड़ोसी हैं, या आपके रिश्तेदार हैं उनसे ही बहुत सारी चीज़ें ऐसी कर दी जा रही हैं कि आदमी frustrate होता चला जा रहा है। उसमें हालत यह हो जा रही है कि परिवार तक में माहौल खराब हो जा रहा है कि तुम अपने cousin को देखो, उसको देखो, उसने यह कर लिया, वह कर लिया, तो ऐसे में क्या होता है। क्योंकि सुसाइड  एक ऐसा thought है कि इंसान खुद को नहीं खत्म करता है। वह अपने pain को खत्म करता है। ऐसा वो सोचता है।

सुसाइड के बीज गहरे होते हैं-

ऐसा नहीं है कि अचानक से उसने सोचा और suicide कर लिया. Suicide जो व्यक्ति करता है उसके वह beach कई दिनों, वर्षों महीनों से बोर रहा होता है। और अपने गुस्से में, अपनी बातचीत में, अपने लोगों से कई बार वह यह कह चुका होता है कि मेरा मन करता है, मैं जान दे दूं। मेरा मन कर रहा है कि मैं भाग जाऊं। तो ऐसा नहीं है कि इंसान को झुंझलाहट हुई और उसने step ले लिया। लेकिन उसके पीछे की जो ज़मीन तैयार होती है वह काफी समय से हो रही होती है। तो यह मैं कहना चाहूंगी कि जो भी यह सारी चीज़ें होती हैं परिवार में या समाज में या friends में, रिश्तेदारों में, तो उससे जुड़े जो भी लोग हैं अगर आपको लगता है कि अगला व्यक्ति depression में जा रहा है या वह परेशान है या वह इस तरह की बातें कर रहा है तो उसको हल्के में कभी नहीं लेना चाहिए।

इससे बचने के क्या उपाय हैं-

देखिए इसके बचाव  के बारे में तो यही कहा जा सकता है कि इसका बचाव तो सबसे पहले शुरू होता है परिवार से, school से। यह एक बहुत बड़ी चीज़ है कि आप बच्चे के साथ बातचीत करें। उसके साथ वक्त बिताएं। अगर आपके परिवार में कोई व्यक्ति ऐसा है, ऐसा है जो रोज़ हंस रहा है, बोल रहा है, और वह एकदम से शांत हो जाए और वह अपने कमरे में बंद हो जाए। या आप लोग तो हंसे बोले बातचीत करे तो वह छत की तरफ चला जाए। एक दिन, दो दिन, चार दिन, महीनों तो क्या घर वाले घर वाले इस चीज़ को notice नहीं कर रहे हैं? या वह suicide करने का इंतज़ार कर रहे हैं? या फिर वह वह कोई action नहीं ले रहे हैं? तो यह मेरे कहने का मतलब यही है कि परिवार के समाज का वक्त बहुत बदल चुका है। मैं घर परिवार सभी को यह बात कहती हूं कि घर में चौबीस घंटे में एक समय ऐसा ज़रूर होना चाहिए जब आप सभी साथ मिलकर बैठें, खाना खाए, बातचीत करे, हंसे बोले और एक दूसरे की routine में क्या चल रहा है इससे रूबरू हों।

आइए जानते हैं कि बच्चों की शिक्षा पर काम करने वाले विश्वम् फाउंडेशन के संस्थापक यूपी त्रिपाठी का इस मामले में क्या कहना है...

प्लॉन A के साथ ही तैयार रखें प्लॉन B-

मेरे विचार से सबसे बेसिक चीज जो है वो यह है कि बच्चे की जो इच्छा है यानी उसका जो गोल है उसे वही करने के लिए प्रेरित करें। बच्चा अपने और पैरेंट्स का जो गोल है वो इसी दोनों के बीच के द्वंद में फंसा रहता है कि उसे क्या करना है और मां-बाप क्या चाहते हैं। दूसरी बात ये है कि जब बच्चों को मां-बाप का सपोर्ट नहीं रहता है तो बच्चे अपने आप को अकेला पाते हैं। उनको लगता है कि ये नहीं तो कुछ और नहीं और उनको कोई सपोर्ट करने वाला भी नहीं है। इसलिए वो लोगों से बात करना छोड़ देते हैं और डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। और धीरे-धीरे वो आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इस बारे में अगर मेरे सुझाव की बात करें तो मेरा मानना है कि बच्चे की रुचि के हिसाब से उसको तैयारी के लिए भेजना चाहिए। और अगर बच्चा  तैयारी कर भी रहा है तो उससे प्रॉपर बात करते रहना चाहिए। उसके टीचर्स को भी चाहिए की उसको तैयारी के साथ ही ये जरूर बताते रहें कि बस यही जीवन नहीं है। इसके साथ ही मां-बाप को भी बताना चाहिए कि प्लॉन B भी तैयार करते रहें क्योंकि मान लीजिए कि किसी तैयारी में नहीं सफल होता है तो इसके बाद दूसरा ऑप्शन भी तैयार रहे। इसके साथ ही तैयारी का भी टेन्योर होना चाहिए की तैयारी के लिए 3 साल या 4 साल के बाद प्लान बी पर काम करना है। सबसे बड़ी बात की बच्चे को कभी यह नहीं महसूस होना चाहिए कि वो अकेला है।  इन सुझावों को अमल में लाने से कुछ हद तक ऐसे मामलों कमी लाई जा सकती है। 

 

अन्य ख़बरें

संबंधित खबरें