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लखनऊ के नवाब आखिर कैसे मनाते थे होली?

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(Special Story) अपने यूपी का अवध इलाक़ा पूरी दुनिया में गंगा जमुनी तहजीब के लिए मशहूर है। इसी इलाके में बसा है अपना लखनऊ। कहा जाता है कि इस शहर को बसाने में अवध के नवाबों की अहम भूमिका रही है। वैसे तो अवध के नवाबों का मजहब इस्लाम था लेकिन अवध में हिंदू त्योहारों को भी खूब धूमधाम से मनाया जाता था। अपनी होली भी खूब मजे से मनाई जाती थी। अब जब होली करीब है तो चलिए आपको बताते हैं कि आखिर लखनऊ के नवाब होली कैसे मनाते थे।

अवध में होरी का रंग, हुरिआरो के ढंग, सिर्फ रंगों में नहीं छलकते बल्कि गानों में, संगीत और नृत्य में और शायरी में भी झलकते हैं। कौन भूल सकता है वाज़िद अली शाह की लिखी वो होरी .... जिसके बिना आज भी होली की कोई बैठक, महफ़िल पूरी नहीं होती

मोरे कान्हा जो आये पलट के 
अबके होरी मैं खेलूँगी डट के
उनके पीछे से चुपके से जाके ये गुलाल 
अपने तन पे लगा के रंग दूँगी उन्हें मैं लिपट के 
अबके होरी मैं खेलूँगी डट के

लेकिन होरी के ये रंग उस जमाने से छलक रहे थे जब वाज़िद अली शाह के पहले, आसफुद्दौला ने अवध की राजधानी लखनऊ को बनाया था। खुदा ए सुखन मीर तकी मीर की दो मसनवियाँ मिलती हैं। 'दर जश्न-ए-होली-ओ-कत-खुदाई' जो आसिफुद्दौला की शादी के मौके पर लिखी गईं -

"आओ साक़ी बहार फिर आई, 
होली में कितनी शादियाँ लाईं 
जश्न-ए-नौ-रोज़-ए-हिंद होली है, 
राग रंग और बोली ठोली है 
आओ साकी, शराब नोश करें, 
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें 
आओ साकी बहार फिर आई, 
होली में कितनी शादियाँ लाई।"

मीर अपनी दूसरी मसनवी 'दर बयान-ए-होली' में फरमाते हैं -

"होली खेला आसिफुद्दौला वज़ीर... 
कुमकुमे जो मारते भर कर गुलाल
जिस के लगता आन कर फिर मुँह है लाल, 
होली खेला आसिफुद्दौला वज़ीर 
रंग सोहबत से अजब हैं खुर्दोपीर।"

और यह इस बात का सुबूत है कि अवध के चौथे लेकिन लखनऊ से पूरी तरह बाबस्ता आसफुद्दौला जिनके बनवाये बड़ा इमामबाड़ा और रूमी गेट के बिना लखनऊ का जिक्र पूरा नहीं होता, किस तरह होली मनाते थे। और वहीं होली की शायरी का जिक्र हो और नज़ीर अकबराबादी का जिक्र न हो.... उनकी मशहूर नज्म की कुछ लाइनें

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की 
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की 
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारे होली की 
ख़म शीशए जाम छलकते हों तब देख बहारे होली की 
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारे होली की ।

नवाब सआदत अली खाँ के दौर में महजूर नाम के एक शायर थे जिन्होंने नवाब सआदत की मजलिसे होली नाम से एक नज़्म लिखी जिसकी पहली पंक्ति कुछ यूँ हैं -

"मौसमे होली का तेरी बज़्म में देखा जो रंग।"

हातिम नाम के एक और शायर ने भी होली का वर्णन अपनी नज्मों में किया है-

"मुहैया सब है अब अस्बाबे होली।
उठो यारों भरों रंगों से झोली।"

मोहम्मद रफी सौदा, उर्दू के शुरुआती दौर के मशहूर शायरों में से एक थे और जिन्होंने जिंदगी के आखिरी पल लखनऊ में गुजारे और यहीं आगा बक्र के इमामबाड़े में ही उनकी क़ब्र बनी हुई है  ....  उन पर भी अवध की होली का रंग चढ़ा,

"ब्रज में है धूम होरी की व लेकिन तुझ बगैर ये गुलाल उड़ता नहीं, 
भड़के है अब ये तन में आग।"

अवध की होली की बात वाज़िद अली शाह से हमने शुरू की थी और वहीं से खतम करेंगे।

वाज़िद अली शाह कैसर बाग़ में होली खेलते थे, रंगों के साथ फाग, धमार और होरी की तानें भी उनका साथ देती थी, कहा जाता है कि एक बार मोहर्रम और होली दोनों एक ही दिन पद गए तो यह फैसला हुआ कि आधे दिन होली मनाई जाएगी और उसके बाद मोहर्रम, और कहा जाता है वो खुद उस होली में शरीक होने पहुंचे। वाजिद अली शाह चांदी की पिचकारी और बाल्टी से होली खेलते थे और उस परम्परा का असर आज भी लखनऊ में देखने को मिलता है जहाँ सर्राफा में होली के मौके पर चांदी की पिचकारियां मिलती है। अवध की होली, और होली से जुड़ी शायरी गंगा जमुनी तहजीब का एक नायाब नमूना है।

 

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