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जेलों में चल रहा 'जाति' का खेल, सर्वोच्च न्यायालय ने जातिगत भेदभाव को किया खारिज

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राजस्थान के जेलों में नाई कैदी को मिलता है बाल काटने का काम, जबकि ब्राह्मण कैदी को खाना बनाने का; वहीं सफाई के काम में लगे रहते हैं वाल्मीकि समाज के कैदी। केरल और उत्तर प्रदेश में भी ऐसी जातिगत व्यवस्थाओं के कारण भेदभाव जारी है, लेकिन अब अदालतों ने इस पर सख्ती दिखाई है।

सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला-

3 अक्टूबर 2024 को, सुकन्या शांता बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए जेलों में जाति आधारित भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त करने का आदेश दिया। इस मामले में विशेष रूप से ध्यान दिया गया कि कैसे कुछ राज्यों में कैदियों के कामकाज का विभाजन जाति के आधार पर किया जाता है, जिसमें निचली जातियों के कैदियों को सफाई और झाड़ू-पोंछा जैसे काम दिए जाते थे, जबकि अन्य कैदियों को बेहतर काम सौंपे जाते थे।

फैसले का आधार: संविधान के अनुच्छेद 14 और 15-

अदालत का यह फैसला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के समानता और भेदभाव-विरोधी अधिकारों पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जातिगत आधार पर कार्य विभाजन असंवैधानिक है, और यह कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। अदालत ने यह भी कहा कि यह व्यवस्था जेलों में सुधार प्रक्रिया को प्रभावित करती है और कैदियों को समान अधिकारों से वंचित करती है।

पूर्व के फैसले: जातिगत भेदभाव पर रोक-

यह पहली बार नहीं है जब भारतीय अदालतों ने जेलों में भेदभाव के खिलाफ कदम उठाया है। इससे पहले, प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन (1980) और इनासियो मैनुअल मिरांडा बनाम राज्य (1988) जैसे मामलों में भी अदालतों ने भेदभावपूर्ण जेल नियमों को खारिज किया था।

प्रेम शंकर शुक्ला मामला: इस मामले में दिल्ली पुलिस के नियमों के तहत कैदियों को उनकी सामाजिक स्थिति के आधार पर "बेहतर वर्ग" और "सामान्य" में बांटा गया था, जिसमें "बेहतर वर्ग" के कैदियों को हथकड़ी लगाने से छूट दी जाती थी। अदालत ने इसे असंवैधानिक ठहराते हुए कहा कि किसी भी तर्क से यह साबित नहीं किया जा सकता कि एक गरीब कैदी अधिक खतरनाक होता है।

इनासियो मैनुअल मिरांडा मामला: इस मामले में जेल प्रशासन ने कुछ कैदियों को पत्र लिखने के अधिकार को नियंत्रित किया था। अदालत ने इसे भेदभावपूर्ण बताते हुए कहा कि सभी कैदियों को समान अधिकार मिलने चाहिए।

सुकन्या शांता मामला: श्रम का जातिगत वर्गीकरण-

इस मामले में जेल मैनुअल के तहत कुछ खास जातियों के कैदियों को केवल सफाई का काम दिया जाता था। इसका उद्देश्य सिर्फ जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देना था। न्यायालय ने इसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार देते हुए खारिज किया और सभी राज्यों को जेल मैनुअल में बदलाव करने का आदेश दिया।

कलकत्ता उच्च न्यायालय का एक और महत्वपूर्ण फैसला-

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी जेलों में समानता की दिशा में एक अहम फैसला सुनाया। इस मामले में अदालत ने माओवादी विचारधारा के आधार पर बंद कैदियों को राजनीतिक कैदी मानने का आदेश दिया। साथ ही, राजनीतिक कैदियों को कुछ विशेष सुविधाएँ, जैसे कुर्सी, मेज, किताबें, पत्रिकाएँ, और रिश्तेदारों से मिलने की अनुमति देने का प्रावधान किया। अदालत ने कहा कि ऐसी सुविधाएँ सभी कैदियों के लिए होनी चाहिए ताकि उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिल सके।

समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम-

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला न केवल भारतीय जेलों में जातिवाद और भेदभाव को खत्म करने की दिशा में है, बल्कि यह समाज में समानता की स्थापना का एक महत्वपूर्ण संदेश भी देता है। यह आदेश अब राज्य सरकारों पर है कि वे अपने जेल मैनुअल में संशोधन करें ताकि सभी कैदियों को सम्मान, समानता और सुधार का समान अवसर प्राप्त हो सके।

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