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कभी समय के पहियों को थामे रखने वाले हाथ अब भी थमने को तैयार नहीं। देश की उम्रदराज आबादी के अनुभव, कौशल और इच्छाशक्ति को नई पहचान देने का समय आ गया है। एक नई रिपोर्ट में यह चौंकाने वाला नहीं, बल्कि उम्मीदों से भरा दावा किया गया है कि यदि बुजुर्गों को फिर से कार्यबल में शामिल किया जाए, तो देश की जीडीपी में 1.5 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभव है।
बुजुर्गों को बोझ नहीं, बदलाव का वाहक मानने की सोच
‘दीर्घायु: बढ़ती उम्र को समझने का एक नया तरीका’ नामक इस रिपोर्ट को रोहिणी निलेकणी फिलान्थ्रॉपीज ने डालबर्ग एडवाइजर्स और अशोका चेंजमेकर्स के साथ मिलकर तैयार किया है। यह सिर्फ एक आर्थिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक दृष्टिकोण परिवर्तन का दस्तावेज़ है — जो बुजुर्गों को "निर्भरता" की परिभाषा से बाहर निकालकर उन्हें "मूल्य सृजनकर्ता" के रूप में देखने की पहल करता है।
अनुभव की अर्थव्यवस्था
2023-24 में भारत के बुजुर्गों ने करीब 580 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष श्रम योगदान दिया। इससे भी अधिक, वे हर साल 14 अरब घंटे पारिवारिक देखभाल और 2.6 अरब घंटे सामुदायिक सेवा में बिताते हैं। यह श्रम भले ही वेतनरहित हो, लेकिन इसका सामाजिक और आर्थिक मूल्य अमूल्य है।
2047: जब 30 करोड़ होंगे बुजुर्ग
रिपोर्ट भविष्य की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है, जिसमें 2047 तक देश में 30 करोड़ से अधिक बुजुर्ग होंगे। रोहिणी निलेकणी कहती हैं, “हमें उन्हें सिर्फ देखभाल की आवश्यकता वाले लोग नहीं, बल्कि देश की प्रगति में सहभागी मानना चाहिए। हर बुजुर्ग एक चलता-फिरता ज्ञानकोष है — उनके अनुभव देश की अगली पीढ़ी को नई दिशा दे सकते हैं।”
‘रिटायरमेंट’ नहीं, ‘री-टायरमेंट’ का समय
श्वेता टोटापल्ली, जो डालबर्ग एडवाइजर्स में क्षेत्रीय निदेशक हैं, मानती हैं कि “यह सिर्फ सामाजिक दया का विषय नहीं, बल्कि नीतिगत रणनीति का मामला है। यदि हम समाज-आधारित नवप्रवर्तनों को मजबूत करें, तो वृद्धावस्था एक नई शुरुआत बन सकती है।”
बुजुर्गों के लिए चार स्तंभों पर टिकी है भविष्य की योजना:
आर्थिक सुरक्षा: आय के साधनों तक पहुंच
स्वास्थ्य और कल्याण: उम्र के साथ बेहतर देखभाल
भागीदारी की स्वतंत्रता: निर्णय लेने और योगदान देने की आज़ादी
सामाजिक जुड़ाव: अलगाव नहीं, अपनापन
नई सोच, नया भारत
यह रिपोर्ट न केवल आंकड़े पेश करती है, बल्कि सोच में बदलाव की भी मांग करती है। समाज को यह समझने की जरूरत है कि ‘दीर्घायु’ का मतलब सिर्फ लंबा जीवन नहीं, बल्कि ‘उपयोगी और गरिमामयी जीवन’ है। अब वक्त आ गया है कि हम अपने बुजुर्गों से सिर्फ कहानी न सुनें, बल्कि उन्हें नई कहानी का किरदार भी बनाएं — जहां उनकी भूमिका सिर्फ अतीत तक सीमित न हो, बल्कि भविष्य का निर्माण भी उनसे हो। भारत अगर अपने बुजुर्गों को बोझ नहीं, बहुमूल्य संसाधन समझे तो यह न सिर्फ एक मानवीय उपलब्धि होगी, बल्कि आर्थिक चमत्कार भी। वक्त आ गया है कि हम उम्र की नहीं, योगदान की बात करें।
Baten UP Ki Desk
Published : 28 May, 2025, 1:42 pm
Author Info : Baten UP Ki