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क्या खतरे में हैं चिकनकारी ?

लखनऊ का नाम लेते ही आपके ज़हन में कौन कौन सी तस्वीरे आ जाती है। शायद शाही परिवार, महल और कोठियां, लजीज खाना और चिकनकारी..  अदब और तहज़ीब के इस शहर ने देश को कई कलाएं सौंपी हैं। उन्ही प्रसिद्ध कलाओं में से एक कला है चिकनकारी, जो लखनऊ की इसी तहजीब और विरासत का एक अहम हिस्सा है। इसीलिए लखनऊ आने वाले या यहां से गुजरने वाले लोग चिकन कढ़ाई की साड़ी, कुर्ता या फिर कुर्तियां ले जाना बिलकुल नहीं भूलते। भारतीय चिकनकारी का काम तीसरी शताब्दी से होता रहा है। चिकन शब्द शायद फारसी के चिकिन या चिकीन शब्द से लिया गया है जिसका मतलब होता है कपड़े पर एक तरह की कशीदाकारी। लोगों के बीच इसे लोकप्रिय बनाने में हिंदी सिनेमा का भी खूब योगदान रहा। सन 1986 में आई मुज़फ़्फ़र अली की हिंदी फ़िल्म अंजुमन में पहली बार चिकनकारी देखने को मिली थी। इस फ़िल्म में शबाना आज़मी और फ़ारुक़ शेख़ थे। लखनऊ की स्थिति पर बनी ये फ़िल्म महिलाओं के दमन और स्थानीय चिकन कशीदाकारी करने वाले कारीगरों की दिक़्कतों के बारे में बनाई गई थी। 

यहां गौर करने वाली बात यह है कि चिकनकारी जीआई टैग वाला एक मात्र प्रोडक्ट है जिसके 32 HSN कोड (नामकरण की प्रणाली) है। इसके मुश्किल से 100 रजिस्टर्ड निर्यातक है, जिसमें लगभग 22 से 26 ही चिकनकारी का निर्यात करते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि HSN कोड को Harmonized System Nomenclature of six-digit code नाम से जाना जाता है। यह 5000 से अधिक उत्पादों की पहचान करता है और उन्हें व्यवस्थित रूप देने में मदद करता है। हालांकि चिकन कशीदाकारी अपने आरंभ के बाद से घटती-बढ़ती रही है। मुगल काल और नवाबों के दौर में इसने जहां सुनहरे दिन देखे थे, वहीं बाद के वर्षों में अंग्रेजों के शासनकाल में भी इसकी लोकप्रियता में गिरावट आ गई थी। 

अब एक बार फिर लखनऊ की इस विरासत चिकनकारी पर मानो संकट के बादल घिर चुके हैं. दरअसल पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की आँखों में अब यह लखनवी परिधान खटकने लगा है। वहीं इसका ज़्यादातर निर्यात अब लखनऊ के बजाए दिल्ली, अहमदाबाद, मुंबई, कोलकाता और सूरत से होता है। 
दरअसल, चिकनकारी लघु उद्योग है। इस ओद्योग से 80 फीसदी महिलाएं जुड़ी हैं। आय कम होने के कारण नई पीढ़ी इससे जुड़ना नहीं चाहती। बड़े ब्रांड्स यहां के कारीगरों से काम कराते हैं और अपना लेबल लगाकर अच्छी कीमत पर प्रोडक्ट को बेच रहे हैं। वहीं पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश ने अपने यहां चिकनकारी के कारीगर तैयार कर लिए हैं। ऐसे में अब बड़ी संख्या में यहां के ऑर्डर वहां जा रहे हैं।
 
अब जानते हैं कि इस मामले पर चिकन कारोबारी क्या कहते हैं, वह कहते हैं कि बड़े ब्रांड्स और निर्यातक सबसे पहले लखनऊ को ऑर्डर देते हैं, लेकिन बल्क ऑर्डर की डिलीवरी समय से करने में हम कमजोर हैं। साथ ही फिनिशिंग व हाईटेक सिलाई के मामले में भी पिछड़े हैं। इस गैर पेशेवर रवैये के कारण बड़े ऑर्डर और ब्रांड दिल्ली, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र के संगठित कारोबारियों के पास जा रहे हैं। 

अब यही कारण है कि लखनऊ से इसका निर्यात मुश्किल से केवल 80 करोड़ रुपये का है। जबकि दूसरे राज्यों के बड़े ब्रांड्स अपने नाम से 200 करोड़ का निर्यात कर रहे हैं। इतना ही नहीं, करीब 400 करोड़ के चिकन प्रोडक्ट, कॉटन प्रोडक्ट के नाम पर निर्यात किए जा रहे हैं क्योंकि उसमें एचएसएन कोड केवल एक है। इससे कहीं न कहीं चिकन की पहचान खत्म हो रही है।

 
इस कारोबार से जुड़े कारीगर बताते हैं कि, ‘साढ़े पांच मीटर की एक साड़ी की बारीक कढ़ाई में छह महिलाएं काम करती हैं और कम से कम इसमें दो महीने लग जाते हैं। मेहनताना मिलता है 12 हजार रुपये। यानी एक कारीगर को दो महीने में महज दो हजार..  इसी साड़ी को अन्य राज्यों के ब्रांड पांच से छह लाख रुपये में अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचते हैं। इसी तरह कुर्ते पर बारीक काम करने के एवज में 300 रुपये मिलते हैं, लेकिन बाजार में छह से सात हजार रुपये में यह आसानी से बिकता है’। यह तो बिलकुल वही बात हो गई कि ‘चिकनकारी लखनऊ की शान है, लेकिन चिकनकारी करने वाले कारीगर परेशान हैं.’ अब महज हजार-दो हजार रुपये महीना कमाने वाले चिकन कारीगरों से उम्मीद भी क्या की जा सकती है। 

खैर, यूपी सरकार की एक जिला एक उत्पाद योजना के तहत लखनऊ की चिकनकारी को भी शामिल किया गया है। ओडीओपी की आधिकारिक वेबसाइट पर लखनऊ की 4 तहसीलों के ब्लॉक के  961 गाँवों में चिकनकारी का काम होता है। एक जिला एक उत्पाद (ओडीओपी) कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 75 जिलों में पारंपरिक उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। 

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